Sunday, September 14, 2008

किस्मत के धनी

किस्मत के धनी
हर राह पर चलता हूं
गिरते-पड़ते आगे बढ़ता हूं
ठोकरे खाते-खाते मंजिल को य़ाद करता हूं
गिरकर जब उठता हूं तो लहू से रंगा पाता हूं अपना पैर
लोगो से सहारे की उम्मीद कर, निराश होता मैं
पूछता हूं मैं रहगुज़र से ज़माने भर का सवाल
सोचता हूं मैं, क्यों बेबस है इंसान यहां पर
एक मंजिल की तलाश में क्यों भटकता हैं इंसान यहां पर
आगे बढ़ने की चाहत लेकर चल रहा हूं मैं
हाताश सा निराश सा दिखता है हर चेहरा यहां पर
जब चलते है जिंदगी के इन मुश्किल रास्तों पर
हर कोइ ढूंढ़ता है एक ठंडी छांव रास्तों पर
पांव में पड़ते है जब छाले तो आंखे उठती है सूरज़ की ओर
वो जलाता सूरज इन राहों को
कभी-कभी भी मेहरबान नहीं होता इन्सानों पर
फिजाओं की महकती हवा ही होती है एक सहारा
फिर भी इन आंखों में होती है मंजिल पाने की ललक
अपने रास्तों पर चलता जाउंगा
तब तक जब तक रास्तें न खत्म हो जाए....
--------रजनीश कुमार

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