Thursday, May 9, 2019

।।गुजारिश बीती बात की, गुजारिश जज़्बात की।।

Poet, Writer, Director Rajnish BaBa Mehta


गुज़ारिश बीती बात की नहीं, गुज़ारिश इस बार जज़्बात की है 
ख़्वाब तले जो लफ़्ज़ समेटे हैं, बात उन लफ्जों के बरसात की है ।।
सीधी उँगलियों से खिचीं है टेढ़ी लकीरें, उन लकीरों पर अब थोड़ी घात सी है 
संकरी गलियों में खड़ी है सामने, ना जाने क्यूं लगता अब वो आखिरी मुलाकात सी है ।।

रूख़सत-ए-क़ाफ़िला-ए-शौक़ के शामों में बुझती शमाओं की फ़ितरत भी अजीब है
मेरे फिगार-ए-बदन तले बुझते दीयों में दिखता आज मेरा सूर्ख लहू कुछ-कुछ ग़रीब है।। 
जुमलों की नुमाईश है,आखिरी शौक़ की आजमाईश है, फिर भी गले में क्यूं सूखा सलीब है
मुर्ग़-ए-बिस्मल की मानिंद जनाज़े के क़रीब लेटा है, खुदा की ख़ैर तले फिर भी तू मेरा आखिरी रक़ीब है।।

तंगदस्ती के मौसम में सोच लेता सच्चे फ़क़ीर-ए-साज तले, 
खुद को ढ़ूंढ़ लेता दर्द की बारगाह में कभी मेरी आवाज तले।।
खानक़ाह की ज़द में खड़ा था,परियों जैसी हुस्नों-ओ-फ़क़ीर के मेले में
अल्लाह से आखिरी इबादत की है, क़यामत वाले रोज ना फसूंगा तेरे झमेले में। 

काग़ज़ों के किनारे काली स्याही की शक में ज़िंदा रहूंगा तेरी संवेदनाओं के सहारे
मोल सिर्फ जिस्मों का होगा, चर्चा सिर्फ जम्हूरियत में होगी, जब बहेगी राख गंगा किनारे।।
तेरी आखिरी पैगाम पर क्यूं आया, कोसता हूं यतीम लहू को, अब जो सफेद चादर लिए ज़र्द रात पुकारे
उम्र-ए-रफ्ता की फिक्र में गुजर गई गलियों के गोशे में जिंदगी, अब ना बैठूंगा कभी ख़ुदगर्ज ख़ुदा के सहारे ।।

लो चला मैं अफ़सुर्दा अफ़सानों की फ़िराक में , बातें ना अब कभी होगी सुराख में,  
इस बार फिर गुजारिश बीती बात की नहीं, होगी आखिरी गुजारिश तेरी-मेरी जज़्बात में ।।
सीधी उंगलियों से जो खिचीं होगी टेढ़ी लकीरें, उन लकीरों पर चर्चा ना होगा कभी घात में , 

फरिश्तें तो सदियों से बैठें हैं इस फिराक में, कि कुछ तो बात होगी तेरी-मेरी आखिरी मुलाकात में।। 

रूख़सत-ए-क़ाफ़िला-ए-शौक़ - प्रेम के कारवां की विदाई।। फ़िगार-ए-बदन - ज़ख़्मी शरीर ।।सलीब - सूली का चिह्न।।मुर्ग़-ए-बिस्मल- घायल परिंदे की तरह ।। रक़ीब - दुश्मन ।। तंगदस्ती-दरिद्रता ।।खानक़ाह-सूफ़ियों का आश्रम ।।उम्र-ए-रफ्ता -बीती हुई उम्र ।।गोशे- कोना।।

कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता