Monday, June 26, 2017

।।ईश्क की ज़िद या ज़द।।


Rajnish BaBa Mehta Poem
ज़िद थी उसके जश्न में 
जान थी उसकी सांसों में 
धड़कती रही बिस्तरों के किनारे 
सिसकती रही बंद सासों के सहारे।
सोचा मकसद पूछ लूं वक्त तो है 
लेकिन झट से मसलन बढ़ा दिया 
मैं भी गोल तकिए की भांति 
ज़िंदगी के मसले को दबा दिया। 

बंद कमरे में दफन राज जो हुआ 
आज अर्से बाद उससे मुलाकात जो हुआ 
पूछ बैठा अपना सवाल , क्यों नहीं आई थी उस रोज 
इश्क तो था हर रोज, लेकिन भरोसा नहीं किया उसने किसी रोज। 

क़ातिब हूं, मेरी तासीर को स्याही से नापा नहीं तूने 
पन्नों पर लिखे शब्दों को पढ़, फिर भी कभी जाना नहीं तूने 
बंद आंखें लिए गुजर तो गई, लेकिन कब्र को पहचाना नहीं तूने 
खुदा का शुक्र है जो लेटा हूं उसके दस्तरखान में बे नज़ीर बनके 
वरना फकीर तो था मैं तेरे इश्क का,जहां इस अमीर का कभी कद्र नहीं किया तूने।।

अब सोच लिया सांसों की सिलवटों के तले, पूरी रात को भी गले से यूं ही लगाउंगा 
खुद में खुदा को खोजकर उसके तलवे तले, मौत को तेरे इश्क से हसीन बनाउंगा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

।।तासीर -प्रभाव।।क़ातिब-लेखक।।बे नज़ीर= जिसके कोई बराबर का हो।।


Wednesday, June 14, 2017

।।खुद ही खुद सोचो।।



खुद को मरते देखा कभी ? आज देखा
खुद को मरते भी देखा, औऱ जिस्म को गिरते भी देखा 
वो शोर भरी सन्नाटों में रातों को रात-रात भर रोते देखा
मरघट की बल्लियों को चिताओं पर सुस्ताते हुए भी देखा 
बस जिंदगी की भीड़ में जिंदगी को जीते, आज-तक ना देखा ।।

सोच को पालने में कभी पलते तो कभी गिरते-प़डते देखा , भूल गए तुम 
खुद के बचपन को इस यौवन में बिखरते देखा, और बुढ़ापे को संवरते देखा
गम्माज़ों को गले लगकर तुम, अपनों से दूर होते, खुद को कई बार क्यों देखा 
क्या फिक्र नहीं थी आंचल की, या फक्र था उस दो पल के सुहाने लम्हों पर 
हश्र तेरा भी वैसा ही होगा,जैसे तपती दोपहरी में सूरज को धूप के लिए तरसते देखा।।

ये वक्त कैसा है ? ख़लिश की बाहों में लड़ते-लड़ते तुम्हारी मौत को खुदा भी ना देखा 
वो जश्न कैसा था?जिसे जीते-जीते,तुमने खुद के साथ-साथ,जिंदगी को भी ना देखा।
काश लौट आते तुम, उस मरघट तले से, जहां जिस्म खुद को मरते देखा करते हैं  
काश उठाकर देख लेते आंचल तुम, जहां तुम्हारी फिक्र में कोई रात-रात भऱ रोया करते हैं ।। 

गम्माज़- चुगलीबाज।।ख़लिश-पीड़ा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता