Sunday, September 14, 2008

संघर्ष

संघर्ष
हर दिन चलता उन राहों पर
जिन पर कभी कांटे उगा करते थे
जब देखता उनको चलते हुए
मै भी चलने की सोचता था
हर राह पर रहगुज़र को देखता
तपती पगडंडिया जाती थी मंजिल की तरफ़
हर उस तन्हाई भरे लम्हें को महसूस करता
जो मुझे तड़पाती थी राहों पर
जिंदगी की आसमां को मिली नयी मंजिल
हर झील-झरनों में घुलती हुई पानी की तरह थी मंजिल
सोचने को न तो वक्त होता, न होता सूनापन
फिर भी हवा के सन्नाटे में चलता रहता था
सूरज की जलाती किरणें हो, या हो चांद की शीतलता
हर मौसम को जीता है मंजिल पाने वाला रहगुज़र
एक हाथ में खाने की पोटली
तो दूसरे हाथ में पानी से भरा लोटा
फिर भी आंखों में होती मंजिल पाने की चमक
तपती पगडंडिया जलाती पैरों को
हवा का रूख़ भी होता विपरित
फिर भी मंजिल पाने की चमक होती आंखों में
रात की तन्हाइयों में जीना चाहता हूं
लेकिन दूर से आती आवाज करती थी मुझे बैचेन
कभी रेलगाड़ी की सीटी
तो कभी कुलियों का शोर
हर पल बैचेनी से भरा
हर लम्हा बोझिल सा लगने लगा
राहों पर चलते चलते ऐसा लगा कि
मानो मौत भी करीब आने लगा
फिर भी चलता रहा बेखौफ उन राहों पर
जहां कदम भी न पड़े थे इनसानों के
हर पल सोचता हुआ चलता रहा राहों पर
क्यों बनाया मैने ये आशियां
क्या कभी आएगी चंदा की शीतलता
इन सवालों से परेशान था
आसमान में उड़ते पंक्षी से पूछना चाहता था
रात में गिरती ओस की बूदों से पूछना चाहता था
सवालों से घिरे जिंदगी में जीने का मजा क्या था
इन सवालों का जवाब किसी और से न पूछा
खुद से पूछने की कोशिश में भी रहता था
रात में चमकती नर्म घासों पर सोता था
मंजिल पाने की आस में रात-रात भर जागता था
मेरी आंखो में थे पूरे होते सपने की आस
मेरा इंतजार पता नहीं कब खत्म होगा
कब खत्म होगा मेरे मंजिल पाने की तालाश.........
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रजनीश कुमार

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