Sunday, November 20, 2016

सिसकियां





















दु: गया दिल , उबल पड़े चंद शेर 
आंसूओं में बह गया, वो सिसकियों का ढ़ेर ।।
डूबने नहीं, उगने वाला था सुबह का वो सिकंदर
साहिल पे था, मौत के चेहरों का वो हुजूम--मंजर ।।

ना मिली पल की मोहलत, जो आंख भरकर देख पाता 
छुपते-छुपाते सन्नाटें में जो शोर मचाती आई ।।
नींद की आगोश में, करवटों के किनारे, सपनों के सहारे 
शब--मर्ग बाद, पौ तो फटी मगर जिंदगी ना नजर आई ।।

रक्खा था ज़मीनों पर कई कशीदा-सर 
चाहकर भी देख ना पाया वो हुजूम--मंजर।।
रूह-रूह में जो इस तरह वो पेवस्त हुई 
राख सा जिस्म थर्राया नहीं ध्वस्त हुई ।।

तोड़कर आईना--ज़िदंगी जो तू मौत कर गया 
रेल की सीटी सी गुनगुनाकर जो तू हममें घर कर गया 
 तलाश लेना तू वो बिस्तर जिसपर तेरी नींद मुकम्मल हो 
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क्योंकि तेरी सिसकियां हमें पूरा पत्थर कर गया ।।

                     कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 



शब-ए-मर्ग -रात का आखिरी पहर, कशीदा-सर -खुला सर 

















Wednesday, November 9, 2016

किस्सागोई बाबा की

रजनीश बाबा मेहता Rajnish baba mehta Fillum 
खुद की बंदगी 
दिल की दिल्लगी 
राहों की बेपनाहगी 
सांसों में संजीदगी 
सोच में सादगी 
जिस्म में अदायगी 
शौक में दीवानगी 

ऐसी ही शख्सियत सिनेमा की 
ऐसी है किस्सागोई बाबा की 

सपनों की राह का राहगीर सा होगा 

मेरे राहों का वो ख्वाबगीर सा होगा ।।

                 कातिब 
         रजनीश बाबा मेहता 

Wednesday, November 2, 2016

इंतजार (विधा- चौरंगा)


Rajnish BaBa Mehta Peom Chauranga style 

सोखती शाख़ों पर सूखे पत्ते 
संदूकों में बंद रिश्तों के प्याले
जड़ ढ़ूढ़ती जोश में काले मुर्दे
स्याह सी लगती है जीवन के ये सारे परदे ।।
ढ़ोल सी बजती तो ढम से आती आवाज़ें
रेल की सीटी सी गूँजती वो सन्नाटें
बिस्तरों पर टूटती उनकी वो कराहें
प्यास लगती तो गूँजती मयखानों में वो आहें ।।
सुबह ढ़ूढ़ती शामों में आसरों के रास्ते
दूर खड़ी पगडंडी पर चलती वो मेरे वास्ते
पहरों की क़ब्र में कैद होकर ख़ूब बरसते
सोच की संसार में खुद से लड़ती वो मिलने को तरसते ।।
अब काग़ज़ के छोटे नावों से बचा है आसरा
गलियों में ना जाने किस बात का सन्नाटा है पसरा
लंबे वक़्त के बाद लगता है पुरी होगी लंबी ख़्वाहिश
लो आ गई झरोखों से आख़िरी वक़्त की ख़्वाहिश
चाह कर भी कोई चाह ही पाया
हिम्मत करते भी कोई हिम्मत नहीं कर पाया
क्योंकि जड़ में जड़ गई वो काले मुर्दे
अब भी स्याह सी लगती है जीवन के ये सारे परदे ।।            

                कातिब 
         रजनीश बाबा मेहता