Tuesday, December 2, 2008

आतंकी हमलों की दास्तान

आतंकी हमलों की दास्तान

आतंकी हमलों की तस्वीर किसने देखी ?
धमाकों की गूंज किसने सुनी ?

सबने सुनी हमने सुनी आपने भी सुनी।
अगर किसी ने नहीं सुनी तो नेताओं ने नहीं सुनी।
गोली किसे लगी मातम किसके घर मना ?
आपके घर और बेगुनाहों के घर मना।

क्या कोई नेता इस हमले का शिकार हुआ ?
क्या किसी नेताओं के घर मातम मनाया गया ?
ये सवाल आज आक्रोश बनकर जनतंत्र से निकल रहा है।
लेकिन सबसे बड़ा सवाल है गलती किसकी ?

मैं न तो नेताओं की गलती मानता हूं
ना किसी और की
गलती है हमारी और आपकी।
इन नेताओं को गद्धी पर बैठने का मौका किसने दिया ?
इन नेताओं के बेतुकी बयानबाजी करने का मौका किसने दिया ?
हमने और आपने
जो हो गया उस बात पर रोने की आदत किसकी है ?
आपकी और हमारी, न कि इन नेताओं की ।
मुंबई हमले में हताहत हुए लोगों की नींद किसने उड़ा दी
सीधा जवाब आतंकियों ने
सबने माना हमने माना और आपने भी माना।
आज मुंबई आजाद तो है लेकिन आंसू किसके बह रहे है ?

उस बेचारे ताज के जो कभी सीना ताने देश के गौरव के समान था।
भले ही ताज आजाद है लेकिन हम अभी भी गुलाम है
किसके ?
उन नेता रूपी आतंकियों के जो सफेद कपड़ों में हर जगह पाए जाते है।
जिसके लिए 5000 जानों का मतलब 5000 ही होता है
200 जानें गई तो क्या गई ?
लगता है पूरे 5000 का वादा किया था आतंकियो ने इनसे।
इनकी बयानबाजी में ऐसा ही लगता है।
आज रोते हुए ताज और नरीमन हाउस की तस्वीर आंसू बहाती ओवेरॉय होटल
क्या कभी भूल पाएगी इन घटनाओं को ?

------Rajnish Kumar

Saturday, November 29, 2008

गलियारा यादों का


गलियारा यादों का


कॉलेज से पास होते ही सभी को भूला
लेकिन एक चेहरा अभी भी याद है
काश वो चिट्ठी न आती तो वो याद भी न आती।
डाकिये की आवाज अभी भीं गूंज रही है मेरे कानों में
‘साहब जी किसी मैडम ने आपके नाम से ख़त भेजा है’
मैडम से मेरे जेहन में एक नाम ही गूंजा
क्या मां ने भी खत भेजना शुरू कर दिया।
लेकिन हाथ में लिफाफा लिए मैं ठगा सा रह गया
कि डाकिये ने तो मेरी जिंदगी में नया पैगाम दे गया।
खुशबू से भरा वो ख़त देख मुझे वो दिन याद आया
जब वो मेरे हाथों में हाथ लिए कॉलेज की गलियों में घूमा करती थी।
हर दोस्त की निगाहों से बचने की कोशिश में रहता था मैं
हर घड़ी उसके बिछुड़ने के डर से रोया करता था मैं।
लेकिन आज न तो मेरी आंखों में आंसू है
न ही मेरे मन में उसकी य़ादों का बसेरा।
हर पल खिलती कलियों सा उसका चेहरा
हंसी में खनकती एक अजीब सी मिठास
जिसे मैं आज भी महसूस कर सकता हूं।
लेकिन ये ख़त मेरे दिलोजान पर छाया हुआ है
तेरी हर एक अदा ऐसा लगता है मेरे जाम में डुबोया हुआ है।
तेरे आने की आहट आज भी सुनने को बेकरार हूं
क्या करूं तेरी य़े खत दीवार बनकर जो खड़ी है।
तू जन्नत में रहकर भी मुझे याद कर रही है
एक मैं हूं जो रोज तूझे मयखानें में य़ाद करता हूं।
तू उस डल झील के किनारे जाकर मुझे याद करती होगी
मैं यहां तूझे अपनी जामों में छलकता देख याद कर रहा हूं।
अपने शिकवे शिकन को तुम दूर कभी न करना
वरना वो कॉलेज की यादें अधूरी रह जाएगी।
वो कॉलेज की गलियां सूनी रह जाएगी।

---------रजनीश कुमार

Saturday, November 22, 2008

शब्दों के बीच जिंदगी....!


ब्दों के बी जिंगी....!


एक पल के इंतजार में चलता जा रहा हूं मैं


अपनी आवाज को सुनने की चाहत में जिए जा रहा हूं मैं।


वो रहगुजर भी मेरे इंतजार में पलकें बिछाए बैठी है


जिसके आखिरी छोड़ पर मेरी मंजिल मेरे इंतजार में बैठी है।


अपने आप को ढूंढने की फिराक में हर पल गुम होता जा रहा हूं,


अब तो तुम्हारें आने का आसरा भी नही दिखता


फिर न जाने क्यों मैं शब्दों में गुम होता जा रहा हूं।


धीरे धीरे धुंधली पड़ती जा रही है तेरी यादें


अब तो शब्द ही जीने का सहारा बनता जा रहा है।

----रजनीश कुमार

मंजिल तो मिल ही जाएगी......!


मंजिल तो मिल ही जाएगी......!




जिंदगी में बहाने ढ़ूढ़ते हैं वो लोग


जिन्हें जिंदगी खोने का डर हो।


इस भीड़ भरी दुनिया में भागते है वो लोग


जिन्हें अपनी पहचान खोने का डर हो।


अपनी खुशी की तलाश में हर पल रहते है वो लोग


जिसकी जिंदगी में हर पल गमों से वास्ता रहा है।


हर पल दूसरों के बारें में सोचते है वो लोग


जिन्हें खुद के अस्तित्व का पता नहीं होता।


फिर भी निराश नहीं होना तुम अपनी जिंदगी में


क्योंकि जब सफर है तो मंजिल मिल ही जाएगी।


----रजनीश कुमार

Friday, November 7, 2008

खुशियों की तलाश में....इंसान




खुशियों की तलाश में....इंसान

खुशियों की तलाश में दर-दर भटकता है इंसान
कहते हैं न जिसकी जिंदगी में ख्वाहिशें औऱ सपने न हो
उसकी जिंदगी बेरंग हो जाती है
लेकिन तेरी जिंदगी में ख्वाहिशें है सपने भी है
फिर भी तेरी जिंदगी न जाने क्यों बेरंग है।

इस अंधेरी-सुनसान गलियों में न जाने तू अकेला क्यों खड़ा है।
लोग पूछते है तुझसे हजारों सवाल
फिर भी तू कहानियों में क्यों जिए जा रहा है,
कभी तो पलट कर देख अपना मुखड़ा उस दरकते आइने में
जिसमें कभी तू अपनी पूरी तस्वीर देखा करता था।
आज भले ही हालात तेरे खिलाफ हो
फिर भी न जाने तू क्यो गुरूर में जिए जा रहा है।


-----रजनीश कुमार

Wednesday, November 5, 2008

तेरे इश्क में


तेरे इश्क में....



तेरे आने की इंतजार में सूनी गलियों को तकती है मेरी आंखे
हर पल हर घड़ी तेरी आहट सुनने को बेताब रहती है मेरी रूह
मैं उस मोड़ पर खड़ा हूं जहां सामने बंद गलियां है
फिर भी उसी बंद गलियों में तेरा इंतजार किए जा रहा हूं मैं।
अंधेरी रातों में दिये के समान है तेरा चेहरा
फिर भी चांद का इंतजार किए जा रहा हूं मैं।
हर पल तेरे ख्यालों में खोया रहता है मेरा मन।
फिर भी तेरे इंतजार में क्यों जिए जा रहा हूं मैं।
----रजनीश कुमार

Saturday, November 1, 2008

इंसानी जिंदगी…


इंसानी जिंदगी…

खुशियों की तलाश में दर-दर भटकता है इंसान
कहते हैं न जिसकी जिंदगी में ख्वाहिशें औऱ सपने न हो
उसकी जिंदगी बेरंग हो जाती है
लेकिन तेरी जिंदगी में ख्वाहिशें है सपने भी है
फिर भी तेरी जिंदगी न जाने क्यों बेरंग है।
इस अंधेरी-सुनसान गलियों में न जाने तू अकेला क्यों खड़ा है।
लोग पूछते है तुझसे हजारों सवाल
फिर भी तू कहानियों में क्यों जिए जा रहा है,
कभी तो पलट कर देख अपना मुखड़ा उस दरकते आइने में
जिसमें कभी तू अपनी पूरी तस्वीर देखा करता था।
आज भले ही हालात तेरे खिलाफ हो
फिर भी न जाने तू क्यो गुरूर में जिए जा रहा है।
-----रजनीश कुमार

अब पत्रकार बनता जा रहा हूं मैं...



अब पत्रकार बनता जा रहा हूं मैं...


कलम की धार पर चलता जा रहा हूं मैं
शब्दों के बाण की बौछार सहता जा रहा हूं मैं
सियासत की गलियों में हर बार जा रहा हूं मैं
खेल के मैदानों में बार बार जा रहा हूं मैं
नेताओं की फितरत को रोज झेलता जा रहा हूं मैं
खिलड़ियों की नफरत को रोज सहता जा रहा हूं मैं
इंसानी जिंदगी को मशीनी बनते देख रहा हूं मैं
क्योंकि अब पत्रकार बनता जा रहा हूं मैं।

----------रजनीश कुमार

Monday, October 27, 2008

क्या हुआ...तुम्हरी जिंदगी को...


क्या हुआ...तुम्हरी जिंदगी को...




हर राह को जलाती धूप के समान है तेरी जिंदगी
खामोश धड़कन की एक तलाश है तेरी जिंदगी।
क्यो ढ़ूढ़ते हो तुम अपनी परछाई को अंधेरों में
क्यों देखते हो तुम सपने दिन के उजालों में ?
क्यों वास्ता नहीं है तुम्हारा हकीकत से
क्यों दूर रहते हो तुम दिन के उजालों से ?
हर राह पर चलने की फिक्र है तुम्हें
हर ख्वाब को पूरा करने की फिक्र है तुम्हें।
फिर भी रात के अंधेरों में भटकते हो तुम,
क्यों नहीं, एक चाहत लिए, जिए जा रहे हो तुम।
तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे लिए नासूर बनती जा रही है,
फिर भी न जाने हकीकत से क्यों दूर हो तुम।


-----रजनीश कुमार

Friday, October 24, 2008

जाति क्या है ?


जाति क्या है ?



जो जाती नहीं वही 'जाति' कहलाती है। हर मनुष्य की फितरत है कि वो अपनी जाति के बारें में कभी न कभी जरूर सोचता है। अगर कोई इंसान यह कहता है कि मैं 'जाति ' विशेष को नहीं मानता हूं, तो वह अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा झूठ बोल रहा है। कभी न कभी इंसानी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ जहां वो अपने स्वार्थ के बारें में ही सोचता है। तब वो अपने सारे वसूलों को ताक पर रखकर अपने और सिर्फ अपने ही बारें में या फिर लाभ के बारें में ही सोचता है। यानि इंसान भले ही कितना बड़ा ही क्यों न हो वह अपनी जाति के बारें में कभी न कभी जरूर सोचता है। तुम भी सोचना मेरे दोस्त क्योंकि मैं नहीं सोच रहा हूं।

-रजनीश कुमार

Sunday, October 19, 2008

मैं निजामों के शहर में था..मैं मुगलों के शहर में हूं...






मैं निजामों के शहर में था.......अब मैं मुगलों के शहर में हूं...







एक धुंध सा भरा सवेरा मैनें, निजामों से शहर में देखा
एक दूसरा सवेरा मैंने मुगलों के शहर में देखा।
याद आती है वो पल जिसे मैंने गुजारा था निजामों के शहर में,
जहां हर दीवारों के जर्रों में एक झलक थी दीवानों की
एक ऐसा शहर जहां मोती खुद को ही पिरोते हुए नज़र आती थी।
जिसकी बिरयानी खुद की स्वादों को चखने के लिए हरपल भूखी नजर आती थी।
जिसके सागर की लहरों में, खुद की उफान को देखने की तमन्ना लिए, पलकें बिछाए रहती थी।
जिसकी फिज़ाओं में दिखती है एक इतिहास के पन्नौं की जैसी कहानी ।
रात होती तो जगते जुगनुओं के समान होती इंसानी जिंदगी
जिसको जीने की तमन्ना लिए आज भी उगते सूरज की ओर देखता हूं मैं।
जब से मैंने छोड़ा निजामों के शहरों को
एक बूंद गिरी मेरी आंखों से, वो आंसू जो आज भी मुझे याद है
जिसे मैने देखा और वो बूढ़ी आंखों ने देखा।
जो मेरे सामने मूक बनकर, मुझे उन्ही आंखो से घूर रहा था।

आज मैं मुगलों के शहर में एक अनजाना परिंदा बनकर घूम रहा हूं
न तो तुम मुझे जानते हो न वो तारें जो मुझे दिलासा दिलाते हैं अपनी काबिलियत की।
दौड़ती जिंदगी के जैसा इस शहर में, हर कोई दिखता है अनजाना
जहां दूसरों से पूछता है, हर कोई अपना ठिकाना।
लोगों को डर है कि इस चलती भीड़ मे गुम न हो जाए..
इसी गुमनामी से डर मैं किनारे पर बैठकर देखता हूं इस भागती भीड़ को।
कितना मुश्किल है इन्सानों की जिंदगी में,
हर कोई सोच कर इसे भूलने की फिराक में रहता है।
अगर कुछ न मिला तो, खुद को ही ढ़ूढ़ने की तलाश में रहता है।
हर कदम पर मिलती मुश्किलों को नकारता जा रहा हूं,
हर बार यही सोच कर चलता जा रहा हूं मैं,
कि निज़ामों के शहर को तो मैं भूल नहीं पाया,
लेकिन मुगलों के शहर में मैं खुद को ही ढ़ूंढ नहीं पाया।
---------------रजनीश कुमार

Thursday, October 9, 2008

ऐ खुदा....मैं हूं अकेला.....!


ऐ खुदा....मैं हूं अकेला.....!



एक सूनापन है उसके बिना मेरी जिंदगी में।
काश वो लौट आती किसी को छोड़कर मेरी जिंदगी में।

अगर वो लौट आती तो आज न होता मैं इस मयखाने में।
आज तू नहीं तभी तो ढूंढ़ता हूं, मैं तुझे उस बेजुबां निशानी में।

पीने के बाद भूलना चाहता हूं, मैं उसको, फिर भी रहती है वो मेरी यादों में।
य़ाद आती है, वो दिन, जब गहरी दोस्ती थी, हम दोनों में।

जीने मरने की कसमें खाते थे, हम दोनों जाकर मंदिर-मस्जिदों में।
कभी मांगा करती थी, वो मुझे अपने मन्नतों में।

आज वो नहीं मैं हूं अधूरा, ऐ खुदा मैं भी नही रहूंगा अकेला,
तेरे इस जन्नत में।


-----रजनीश कुमार

खुदा के नाम जिंदगी…...


खुदा के नाम जिंदगी…...!



जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, तो मेरे आंसुओं ने मेरे पलकों का साथ छोड़ दिया।
जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, तो मेरी मुस्कुराहट ने मेरे लबों का साथ छोड़ दिया।
जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, एक-एक करके सारी खुशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया।
एक दिन मैंने अपनी यादों को, अपने दिल में दफन कर दिया।
तेरे जाने के बाद मैंने अपनी जिंदगी मयखानों के नाम कर दी।
तेरे जाने के बाद मैंने हर शाम, उस बेजुबां निशानी के नाम कर दी।

बहुत पीने के बाद अब मैंने अपनी जिंदगी को हकीमों और फकीरों के नाम कर दिया।
फिर भी सुकून नहीं मिला तो अब, अपनी जिंदगी मैनें खुदा के नाम कर दिया।


-----रजनीश कुमार

बदला गया......?


बदला गया......?



रिश्ते बदलते देर नहीं लगी, मगर चेहरा वही था।
रास्ते बदलते देर नहीं लगी, मगर मंजिल वही था।

मुश्किलें बदलते देर नहीं लगी, मगर हालात वही था।
ख्वाब बदलते देर नहीं लगी, मगर नींद वही था।

क्या कभी सोचा है हमने-आपने इस बारें में,
आज वक्त बदल गया, मगर सोचने का तरीका वही है।

अंजाम बदल गया, मगर अपना मकाम वही है।
हर कोई बदल गया, मगर अपना गुरूर नहीं बदला।

आज मंदिर-मस्जिद बदल गया, मगर भगवान नहीं बदला।
सब कुछ बदलते नहीं लगी, मगर आज भी समय नहीं बदला।


------रजनीश कुमार




खामोश दिल


खामोश दिल



उसकी यादों में हर पल जिया करते थे हम,
उनकी सलामती की दुआ मांगा करते थे हम।
आज वो नहीं है फिर भी वो लम्हा याद आती है,
जब उसके कूचे से बेआबरू होकर निकला करते थे हम।
वो हमें देखकर कर पलट जाया करती थी,
फिर भी खामोश दिल को तसल्ली दिया करते थे हम।

हर कोई बताता था उसकी बेवफाई की कहानी,
फिर भी उसकी यादों में खोए-खोए से रहते थे हम।
किसी की बातें नहीं सुनता एक समय रह गया मैं अकेला,
फिर भी उसकी यादों की गहराई में डूबे थे हम।

दुनिया की भीड़ में रह गया था मैं अब अकेला,फिर भी उसकी चाहत में जिए जा रहे थे हम।



--------रजनीश कुमार 'बाबा'

Sunday, October 5, 2008

तुम होती तो...ये जाम न होता..


तुम होती तो...ये जाम न होता...



कभी कभी दिखती थी वो मुझे शामों में
मैं तो खोया रहता था उसकी यादों के जामों में।
कर नहीं पाता अपने मासूम मुहब्बत का इजहार इन फसानों में,
हर पल दिखती है उसकी तस्वीर इन जमानों में।
आवाज है जख्मी फिर भी गाता हूं उसे अपने गानों में,
तकदीर की लकीरों को ढूंढता हूं अपने हाथों में,
दर-दर भटकता हूं तेरे प्यार में,
फिर भी दर्द न होता इन पांवों में।
अगर तू साथ होती तो आज न होता मैं इस मयखानें में।
अगर तू साथ होती तो आज न होता ये जाम मेरे हाथों में।

------रजनीश कुमार


Saturday, October 4, 2008

दाखिला लेने की चाहत




दाखिला लेने की चाहत



याद है मुझे कॉलेज के बाद का वो दिन,
आगे की पढ़ाई जारी ऱखने का टेंशन।
हर कोई दाखिला ले रहा था एम.ए. और एम.बी.ए. में,
मुझे तो दाखिला चाहिए था सिर्फ पत्रकारिता में।
हर कॉलेज, हर विश्व विघालय का चक्कर लगाता था मैं,
वो दिल्ली में गर्मी का दिन जून के महीने में,
वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदने के लिए लगती थी लंबी कतार,
मगर मजबूत किस्म के लड़को की नहीं होती थी कोई कतार।
आखिर किसी तरह नंबर आता फार्म खरीदने के लिए पैसे बढ़ाता,
काउंटर वाला भी खुदरे पैसे के लिए सभी को तड़पाता।
पर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदकर पेड़ों के नीचे बैठता था मैं,
मगर हवा के गर्म थपेड़ों से घबराता था मैं।
वो गर्म हवा हमें एहसास दिलाती थी, अपने काबिलियत की,
वो गर्म हवा की चुभन से सिहर उठता था मैं।
सोचता था कितनी मुश्किलें हैं हमारी जिंदगी में।
मगर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदकर घर जाने के लिए बस पकड़ता था,
खिड़की के पास खाली सीट देखकर जल्दी से बैठता था।
जब बस चलती फिर वही गर्म हवा चेहरे से टकराती,
फिर वही मजबूरियां हमें याद आती ।
मगर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।


-----रजनीश कुमार

Thursday, October 2, 2008

क्यों ?


क्यों ?

हम है, आज हैं, कल नहीं होंगे,
क्या है, क्यों है, पता नहीं कब होंगे ?
मौत एक अंधेरा है, जिंदगी सवेरा है,
फिर भी जिंदगी साथ क्यों नहीं देती।
एक मौत है पता नहीं साथ क्यों नहीं छोड़ती?
एक जिंदगी है जो हमेशा दगा दे जाती है,
फिर भी मनुष्य को जीने की चाहत क्यों हो जाती है?
मौत कभी बेवफा नहीं होती,हमेशा समय पे ही आती है,
फिर भी मनुष्य न जाने मौत से क्यों घबराता है?

-------रजनीश कुमार

रिश्ते की डोर


रिश्ते की डोर

रिश्ते की डोर टूटने लगी थी,
एक हाथ से थामा मैंने,
फिर भी रिश्ते की डोर छूटने लगी थी।
उसने थामा, मैंने थामा,
फिर भी रिश्ते की डोर छूटने लगी थी।
वक्त ने समझाया,आइने ने दिखाया,
फिर भी हकीकत से नाता टूटने लगी थी।
बहुत गिरगिराया,बहुत रोका मैंने उसको
फिर भी वो मुझसे दूर जाने लगी थी।
बेवफाई कर गई वो मुझसे दिल नहीं माना,
फिर भी उससे मेरा नाता टूटने लगा था।
लाख कोशिश की मैंने,हुआ मैं प्यार में असफल,
मैं भी उससे नाता तोड़ने की सोचने लगा था।

-----रजनीश कुमार

Wednesday, October 1, 2008

सोचता रहा मैं....


सोचता रहा मैं....


क्यों सताती रही वो, मुझे मेरी यादों में।
मैं तो नहीं सताता उसको उसकी यादों में।
एक अजीब सी कशिश सी थी उसकी बातों में।
जब वो मुड़कर देखती थी तो घबराता था मैं।
फिर भी न जाने क्यों, उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
जब वो लहराती थी हवा में अपना दुपट्टा,
एक आह सा भर के रह जाता था मैं।
अपने दिल की बात बताने से डरता था मैं,
फिर भी उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
अपने दिल की बात दिल में दबाकर रखना सीख गया था मैं।
जब वो बातें करती थी, तो देखता था उसे एक झलक हर कोई,
लेकिन उसकी निगाहों से निगाहें मिलाने से बचता था कोई।
मेरे दिल की बैचेनी, उसे एहसास करा गई मेरे प्यार की,
बैचेनी से भरी वो भी, मेरे पास आकर कह गई,
“मेरी जिंदगी है किसी और की”।
प्यार में टूटकर मैं खाक छानता रहा मयखानों की,
अंत में याद आ गई मुझे वही नरम हाथों वाली बेजुबां निशानी की।

---रजनीश कुमार

एक मोती



एक मोती


एक मोती ,उसके दिल के पास उसकी धड़कनों को सुनता हुआ।
एक मोती, उसके कान के पास उसकी जुल्फों को छेड़ता हुआ।
वो खुशनसीब मोती मुझे देखकर हंसता रहा।
मैं चिढ़ता रहा उस मोती पर , पर कुछ न कर सका।
काश मैं वो मोती होता, उसकी धड़कनों को सुनता ।
काश मैं वो मोती होता , उसकी जुल्फों को छेड़ता।
मगर मैं बदनसीब वो मोती मुझसे अनजान थी।
मेरे नज़र के सामने पर वो गुमनाम थी।


----रजनीश कुमार


Monday, September 29, 2008

दंगा


दंगा



बहुत दिनों तक दंगा चलता रहा ।
फिर हर सड़कें रही सुनसान
यहां पर हत्याएं करता रहा , एक इन्सान का इंसान
फिर भी न डोला किसी का धर्म के प्रति ईमान।
लेकिन धर्म यह नहीं कहता हत्याएं करना है तुम्हारा ईमान।
इस धरती पर खुदा ने किसी को, न बनाया हिंदू न मुसलमान।
खुदा ने तो इस धरती पर भेजा सिर्फ एक इंसान।
फिर लोग क्यों बन जाते है धरती पर आकर हैवान।


--------रजनीश कुमार

सुदर्शन फाकिर से एक मुलाकात राजेंद्र राजन से


सुदर्शन फाकिर से एक मुलाकात राजेंद्र राजन से


जून की वह तपती दुपहरी थी जब मैं आठ वर्ष पूर्व सुदर्शन फाकिर से भेंट करने के लिए धर्मशाला से हमीरपुर पहुंचा था। आकाशवाणी के हमीरपुर स्थित एफ.एम. स्टेशन के केंद्र निदेशक विनोद धीर के यहां सुदर्शन फाकिर चन्द रोज के लिए रुके हुए थे। यह बात ताज्जुब में डालने वाली थी कि आंकड़ों के नजरिए से देश-विदेश में तरक्की और खुशहाली के शीर्ष पायदान पर सुशोभित हमीरपुर कस्बा सुदर्शन फाकिर की उपस्थित से कतई बेखबर था। हमीरपुर में विनोद धीर के घर सुदर्शन फाकिर से वह मेरी पहली और आखिरी भेंट साबित हुई।
गायकी में अलग पहचान बनाने के पीछे जगजीत सिंह का फन भले ही क्यों न रहा हो, उन्हे तरक्की के मुकाम पर पहुंचाने में सुदर्शन फाकिर का योगदान सर्वोपरि रहा है। जगजीत सिंह व चित्रा सिंह की अब तक जितनी भी एलबमें निकली है, उनमें अधिकांश गजलें सुदर्शन फाकिर की है। करीब 50 गजलों की रचना फाकिर ने इस जोड़ी के लिए की। 'कागज की कश्ती बारिश का पानी' ने जगजीत सिंह को बुलंदी पर पहुंचा दिया। लोग समझे शायद जगजीत सिंह ने इस जनम में अपने बचपन का अक्स देखा। लेकिन यह सच नहीं है। असल में यह शायर फाकिर का बचपन था, जिसकी धड़कनें उन्होंने फिरोजपुर के समीप अपने उस गांव में सुनी थीं, जहां वे पैदा हुए थे। वहां रेत के टीले थे। वे घरौदे बना-बना कर उन्हे बार-बार मिटाते थे। सुदर्शन फाकिर की गजलों की गूंज 1970 से ही मेरे कानों में थी। जब पहली बार बेगम अख्तर के लिए उन्होंने गजल लिखी थी, 'कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया और कुछ तलखिए हालात ने दिल तोड़ दिया।' इसी गजल का एक मकबूल शेर है, 'हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब। आई बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया।'
'खुद के बारे में क्या कहूं? फिरोजपुर के नजदीकी एक गांव में पैदा हुआ। पिताजी एम.बी.बी.एस. डाक्टर थे। जालंधर के दोआबा कालेज से मैंने पॉलिटिकल साइंस में 1965 में एम.ए. किया। आल इंडिया रेडियो जालंधर में बतौर स्टाफ आर्टिस्ट नौकरी मिल गई। खूब प्रोग्राम तैयार किए। 'गीतों भरी कहानी' का कांसेप्ट मैंने शुरू किया था। लेकिन रेडियो की नौकरी में मन नहीं रमा। सब कुछ बड़ा ऊबाऊ और बोरियत भरा। 1970 में मुंबई भाग गया।'
'मुंबई में मुझे एच.एम.वी. कंपनी के एक बड़े अधिकारी ने बेगम अख्तर से मिलवाया। वे 'सी ग्रीन साउथ' होटल में ठहरी हुई थीं। मशहूर संगीतकार मदनमोहन भी उनके पास बैठे हुए थे। बेगम अख्तर ने बड़े अदब से मुझे कमरे में बिठाया। बोलीं, 'अरे तुम तो बहुत छोटे हो। मुंबई में कैसे रहोगे? यह तो बहुत बुरा शहर है। यहां के लोग राइटर को फुटपाथ पर बैठे देखकर खुश होते है।''
'जब मैं बेगम अख्तर से मिला तो मेरी उम्र 24 साल थी, लेकिन उन्होंने मेरी हौंसला-अफजाई की। मैंने उनके लिए पहली गजल लिखी, 'कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया' बेगम साहब बेहद खुश हुई। 1970 से 1974 तक मेरी लिखी कुल छह गजलें एच.एम.वी. कंपनी ने बेगम अख्तर की आवाज में रिकार्ड कीं। मुझे याद है कि उन्होंने मेरी शायरी में कभी कोई तरमीम नहीं की। यह मेरे लिए फक्र की बात थी। एक बात और जो मैं कभी नहीं भूलता। वह कहा करती थीं, फाकिर मेरी आवाज और तुम्हारे शेरों का रिश्ता टूटना नहीं चाहिए।' फाकिर का क्या अर्थ है, पूछने पर उन्होंने कहा 'यह फारसी का लफ्ज है, जिसके मायने हिंदी में चिंतक और अंग्रेजी में थिंकर है।'
फाकिर ने गजलों तक ही खुद को महदूद नहीं रखा। फिल्मों के लिए भी गीत लिखे। 1980 में उनकी पहली फिल्म थी 'दूरियां'। इसमें जयदेव ने संगीत दिया था। 'मेरा एक गीत 'जिंदगी, जिंदगी, मेरे घर आना, आना जिंदगी। मेरे घर का इतना सा पता है..' इसे भूपेन्द्र ने गाया था। इस गीत के लिए मुझे 'बेस्ट फिल्म फेयर अवार्ड मिला था।'' 'जमीन', 'पत्थर दिल', 'नाजायज', 'एक चादर मैली सी', 'दूरियां', 'प्रेम अगन', 'रावण' फिल्मों के अलावा फिरोज खान की 'यलगार' फिल्म के गीत व संवाद सुदर्शन फाकिर ने ही लिखे।
इसे संयोग ही कहा जायेगा कि प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह, जाने-माने लेखक, नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया और सुदर्शन फाकिर छठे दशक में जालन्धर के डीएवी कालेज के छात्र थे। तीनों में घनिष्ठ मित्रता थी और अपने-अपने इदारों में तरक्की के शिखर छूने के लिए उन्होंने अथक परिश्रम किया। तीनों सेलिब्रिटीज बने।
पंजाब में 20-22 वर्ष पूर्व जब दहशतगर्दी का माहौल चरम पर था तो सुदर्शन फाकिर विचलित हुए बिना न रह सके। उन्होंने पंजाब के आतंकवाद पर एक गजल लिखी जिसका मिसरा है ''पत्थर के सनम, पत्थर के खुदा, पत्थर के ही इंसान पाये है। तुम शहरे-मोहब्बत कहते हो, हम जान बचा कर आए है।'' जगजीत सिंह की ही आवाज में यह गजल 'पैशन्स' एलबम में एक नगीने सी झिलमिलाती है और पंजाब के उस दौर में ले जाती है जहां सांझ ढलते ही गलियां, मुहल्ले और सड़कों पर सूनापन पसर जाता था।
तकरीबन 73 वर्ष की उम्र में फाकिर ने 18 फरवरी, 2008 को जालन्धर के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली। वे लम्बे अरसे से अस्वस्थ चल रहे थे। एक ऐसा व्यक्ति जिसे लाखों करोड़ों लोगों का भरपूर प्यार मिला। उसने मोहब्बत, जिंदगी और दु:ख को नितांत नये मायने दिए। खासकर अपनी सर्वाधिक मकबूल नजम 'ये दौलत भी ले लो, ये शौहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटा दो वो बचपन, कागज की कश्ती वो बारिश का पानी' ने करोड़ों संगीत प्रेमियों के दिलों में फाकिर ने अपने लिए रातों-रात जगह बना ली। इसी प्रकार बेगम अख्तर के स्वर में उनकी गजल 'इश्क में गैरते जजबात ने रोने न दिया' गजल ने भी मानवीय हृदय की संवेदनशील तारों को छुआ।
सुदर्शन फाकिर जीवन संघर्ष, मानवीयता और आपसी रिश्तों की मर्मस्पर्शता को गंभीरता से गजलों में बुनते है। उनकी गजलें सृजन के व्यापक रैज को पूरी शिद्दत के साथ उभारती है। वे अपने समय के एक संवेदनशील शायर है, जिन्होंने अपने रचनात्मक जीवन में एक बड़ा वितान रचा। वास्तव में फाकिर का मूल्यांकन अभी होना बाकी है।

--------------रजनीश कुमार

Sunday, September 28, 2008

मुझमें हिम्मत नहीं है....?



मुझमें हिम्मत नहीं है....?

मौत के रास्तों पर चलने की हिम्मत नहीं है मुझमें
जिंदगी के फलसफों को समझने की ताकत नहीं है मुझमें
जिस राह पर मैं चल रहा हूं उस राह की दूरी बताने की ताकत नहीं है मुझमें
नदी किनारे ओस की बूदों से, प्यास मिटाने की फिराक में हूं मैं
रास्तों पर चलने को नहीं, दौड़ने की फिराक में हूं मैं
राहगीर से पूछता हूं, मैं अपने साय़े का हाल
क्या साथ देगी मेरी परछाई दूर तलक
हर मोड़ पर भी एक मोड़ है ,जो एक सवाल है मेरे लिए
अब इन सवालों में उलझने की ताकत नहीं है मुझमें,
अब तो इंतजार है उस मंजिल की,
जिसे पाने की फिराक में हूं मैं........


----रजनीश कुमार

भूल रहा है किसको

भूल रहा है किसको.....


वो जमाना भूल नहीं पाते हम
जब वो हमारे साथ हंसा करती थी।
वो आंसू भूल नहीं पाते है हम
जब हमारे साथ रोया करती थी।

वो वक्त नहीं भूल पाते है हम
जो हमारे साथ बिताया करती थी।
मगर मैं भूलना चाहता हूं हर उन लम्हों को
जो बिताया था उसके साथ
लोगों से पूछता हूं मैं, इस मर्ज की दवा,
लोग हंसकर कहते है, इसका है ही नहीं दवा।

जब मैंने ठाना भूल जाऊंगा उसको,
वो फिर याद आती है
दिल कहता है, तू भूल रहा है किसको ?



-----रजनीश कुमार




हम


हम


भटकते है मुसाफिरों की तरह ज़िंदगी में हम
मंजिलों को ढूंढते है मुसाफिरों की तरह ज़िदगी में हम
हालातों से जूझते हैं मजबूरों की तरह ज़िदगी में हम
काँटों के बीच चलते हैं गुलाबों की तरह ज़िदगी में हम
क्या ऐसा ही चलता ही रहेगा इस बारे में सोचते क्यों नहीं हम
ऐ खुदा निजात दिला दे इन मुश्किलों से तेरे बंदे
है हम।


----रजनीश कुमार

ढूंढता हूं मैं......खोया हुआ एक चेहरा


ढूंढता हूं मैं......खोया हुआ एक चेहरा
अगर तू मिलती मुझे ,
तो मिलता मुझे मुकम्मल ज़हां।
जब से छोड़ गई तू मुझको,
उड़ गया मेरा आशियाना यहां।
तेरा दामन जब से छूटा,
भूल गया मुझे जाना है कहां ।
अब किसी से पूछता हूं तेरा पता,
तो लोग कहते है जाओ वहां।
मेरे दर्द को तू समझ न सकी,
फिर भी जानना चाहता हूं, लोगो से तेरे बारे में बयां ।
जब जाता हूं मयखाने ,तो लोग स्वागत करते है,
ये कहकर, यही है आशिकों का कारवां।
जब मैं पीता हूं ,तो भूल जाता हूं तेरी बेवफाई की कहानी,
क्या करूं नरम हाथों से पिलाती है वो बेजुबां निशानी ।
नशे में ढूंढता हूं मैं,
तेरे चेहरे की मासूमियत को हर चेहरे में ।
मगर तू दिखती है हमेशा,
उस बेजुबां निशानी के चेहरे में।
क्या यही सच है हर कोई ढूंढता है

दूसरा चेहरा एक चेहरा खोने के बाद,
मगर मैं ढूंढता हूं वही चेहरा,
एक चेहरा खोने के बाद।

----रजनीश कुमार

Saturday, September 20, 2008

वर्षों बाद



वर्षों बाद

वर्षों बाद दिखा चेहरा तेरा आइने में,
कुटिल मुस्कान तेरे चेहरे से हटा न सकी तेरी उम्र ने।
बेवफाई का चोला हटा न सकी तेरी आदत ने,
वर्षों बाद बदल न सका तेरे चेहरे को तेरे आइने ने।
दुनिया कहती रही खामियों का पुलिंदा हो तुम,
फिर भी तेरा प्यार हटा न सका अपने जेहन से।
तेरी याद में मैं जाम पर जाम पीता रहा,
पर हटा न सका बोतल अपने कमरे से।
काश तू कबूल करती मेरा प्यार अपने जमानें में,
तो आज न होता मैं इस मयखानें में।
हाल ए दिल किसी को सुनाता हुं अपना बनाकर,
लोग ठुकराते है मुझे तेरा आशिक बताकर।

----रजनीश कुमार

क्यों आते हो तुम



क्यों आते हो तुम

बनते बिगड़ते रहते रिश्ते मेरी कविताओं में,
कभी पतझड़, कभी वसंत दिखता है मेरी कविताओं में,

नाराज़ परेशान जब भी होते तुम जिंदगी में,

राहत कि एक किरण ढूंढ़ते हो मेरी कविताओं में,

ज़िंदगी में चले हो तुम रकीबों के काफिलों में,

जब भी जरूरत महसूस कि दोस्तों की चले आए मेरी कविताओं में।

हर मोड़ पर एक शख्स मिला एक सवाल मिला,

उस शख्स का चेहरा तो मिला पर जबाब ना मिला,

नाउम्मीद होकर भी मंजिल की तरफ बढ़ते रहे तुम,

अपनी हिम्मत की कद्र खुद ही करते रहे तुम,

हर पल टूटते हैं सपने, बिखरता है ख्वाब, तुम्हारी ज़िंदगी में,

क्यों चले आते हो तुम, फिर भी मेरी कविताओं में।
------ रजनीश कुमार

Monday, September 15, 2008

एक रिश्ता



एक रिश्ता जो अभी-अभी बन रहा था
टूटने लगा मगर बनने से पहले
सीखने लगे थे हम आपसे मुस्कुराना
रूला दिया मगर हंसने से पहले
एक महल बनाया सपनों की दुनिया का
गिर गया वो नींव रखने से पहले
भिक्षा के लिए जो हमने झोली फैलाई
खींच लिया हाथ मगर कुछ देने से पहले
जिंदगी की परिभाषा जो खोजने हम निकले
जिंदगी छीन गई जीने से पहले
क्या यही अर्थ होता है रिश्तों का
ढ़ूंढ़ना होता है उन्हें बनने से पहले


-रजनीश कुमार

Sunday, September 14, 2008

संघर्ष

संघर्ष
हर दिन चलता उन राहों पर
जिन पर कभी कांटे उगा करते थे
जब देखता उनको चलते हुए
मै भी चलने की सोचता था
हर राह पर रहगुज़र को देखता
तपती पगडंडिया जाती थी मंजिल की तरफ़
हर उस तन्हाई भरे लम्हें को महसूस करता
जो मुझे तड़पाती थी राहों पर
जिंदगी की आसमां को मिली नयी मंजिल
हर झील-झरनों में घुलती हुई पानी की तरह थी मंजिल
सोचने को न तो वक्त होता, न होता सूनापन
फिर भी हवा के सन्नाटे में चलता रहता था
सूरज की जलाती किरणें हो, या हो चांद की शीतलता
हर मौसम को जीता है मंजिल पाने वाला रहगुज़र
एक हाथ में खाने की पोटली
तो दूसरे हाथ में पानी से भरा लोटा
फिर भी आंखों में होती मंजिल पाने की चमक
तपती पगडंडिया जलाती पैरों को
हवा का रूख़ भी होता विपरित
फिर भी मंजिल पाने की चमक होती आंखों में
रात की तन्हाइयों में जीना चाहता हूं
लेकिन दूर से आती आवाज करती थी मुझे बैचेन
कभी रेलगाड़ी की सीटी
तो कभी कुलियों का शोर
हर पल बैचेनी से भरा
हर लम्हा बोझिल सा लगने लगा
राहों पर चलते चलते ऐसा लगा कि
मानो मौत भी करीब आने लगा
फिर भी चलता रहा बेखौफ उन राहों पर
जहां कदम भी न पड़े थे इनसानों के
हर पल सोचता हुआ चलता रहा राहों पर
क्यों बनाया मैने ये आशियां
क्या कभी आएगी चंदा की शीतलता
इन सवालों से परेशान था
आसमान में उड़ते पंक्षी से पूछना चाहता था
रात में गिरती ओस की बूदों से पूछना चाहता था
सवालों से घिरे जिंदगी में जीने का मजा क्या था
इन सवालों का जवाब किसी और से न पूछा
खुद से पूछने की कोशिश में भी रहता था
रात में चमकती नर्म घासों पर सोता था
मंजिल पाने की आस में रात-रात भर जागता था
मेरी आंखो में थे पूरे होते सपने की आस
मेरा इंतजार पता नहीं कब खत्म होगा
कब खत्म होगा मेरे मंजिल पाने की तालाश.........
.................................
रजनीश कुमार

किस्मत के धनी

किस्मत के धनी
हर राह पर चलता हूं
गिरते-पड़ते आगे बढ़ता हूं
ठोकरे खाते-खाते मंजिल को य़ाद करता हूं
गिरकर जब उठता हूं तो लहू से रंगा पाता हूं अपना पैर
लोगो से सहारे की उम्मीद कर, निराश होता मैं
पूछता हूं मैं रहगुज़र से ज़माने भर का सवाल
सोचता हूं मैं, क्यों बेबस है इंसान यहां पर
एक मंजिल की तलाश में क्यों भटकता हैं इंसान यहां पर
आगे बढ़ने की चाहत लेकर चल रहा हूं मैं
हाताश सा निराश सा दिखता है हर चेहरा यहां पर
जब चलते है जिंदगी के इन मुश्किल रास्तों पर
हर कोइ ढूंढ़ता है एक ठंडी छांव रास्तों पर
पांव में पड़ते है जब छाले तो आंखे उठती है सूरज़ की ओर
वो जलाता सूरज इन राहों को
कभी-कभी भी मेहरबान नहीं होता इन्सानों पर
फिजाओं की महकती हवा ही होती है एक सहारा
फिर भी इन आंखों में होती है मंजिल पाने की ललक
अपने रास्तों पर चलता जाउंगा
तब तक जब तक रास्तें न खत्म हो जाए....
--------रजनीश कुमार

मां का चेहरा



मां का चेहरा


हर कोई बचपन की कहानी कहता है
मै भी एक ऐसी ही कहानी सुनाता हूं
शाम का ढ़लता हुआ मंजर देखता था
मां के सर पर दुपट्टा, हाथ में दीया
सामने अस्त होते सूरज की ओर, मां का चेहरा
बंद आंखे ,हाथ में दीपक, भक्ति भाव से भरा चेहरा
मासूम भरी मेरी आंखो में होता एक अनसुलझा सवाल
कभी देखता मां का चेहरा
कभी देखता बुझता दिया ,तो कभी अस्त होता सूरज
सवालों में हर पल उलझता था
सोचता था क्या ये गांव है पूरी दुनिया
हर सवाल का जबाब खुद ही देता
शाम गुजरती घिर के आता घनघोर अंधेरा
रसोई में होती मां और चौबारे पर पढ़ते पापा
लालटेन की धीमी रोशनी भी करती मुझे बैचेन
जब भी दिखती मुझे टिमटिमाती रोशनी
फिर घिर जाता मैं सवालों से
सोचता था न रात होती न होती रोशनी
होता तो सिर्फ दिन का उजाला
रोज हजारों सवालों से जूझता था मैं
मां से डॉट खाने के बाद भी पूछता था मैं
सोने के लिए बिस्तर भी था एक सवाल मेरे लिए
नींद आती खो जाता मै सपनो की दुनिया में
सुबह होती टकराती सूरज की किरणें ऑखों से
मां की आवाज गूंजती मेरे कानो में
सुबह की टेंशन से घबराता था मैं.
स्कूल जाने पर रोता था मैं
किसी तरह स्कूल पहुंच ही जाता
प्रार्थना के लिए घंटी बजती
फिर एक सवाल मेरे दिमाग में कौंधता
कब मिलेगा छुटकारा इन बंदिशो से
इन्हीं सवालो से घिरकर मैने अपनी जवानी में रखा कदम
मां हुई, बूढ़ी पापा ने भी पढ़ना छोड़ा
वक्त गुज़रता गया मंज़र बदलता गया
मां ने अब चुप रहना सीख लिया
पापा ने चौबारे पर जाना छोड़ दिया
एक बार फिर मैं सवालों से घिरता चला गया
सोचता था मां के आवाजों की खनक कब सुनाई देगी
पापा के डांट में वो गुस्सा कब होगा
वक्त गुजरता गया बीबी का साथ मिला
फिर भी मैं मां के सिराहने पर सर रख कर सोता था
अपने आंसू को पीकर भी मै कुछ नहीं कह पाता
कि मां, मै सपने में अब भी तुम्हें ही देखता हूं
याद आती है वो बचपन की बातें
याद आती है वो मां का दुपट्टा
जिससे मां मेरा आंसू पोछा करती थी
सोचता हूं काश लौट के आते वो लम्हें
लौट के आता वो चंदा, वो सूरज
जिसे मै ख्वाबों में देखता था
बचपन तो सवालों के बीच गुजरा
लेकिन अब मैं सुकून से रहना चाहता हूं
अब न तो सवाल है न ही जवाब
पर अब भी मै देना चाहता हूं
अपनी जिंदगी को नया आयाम
मेरे शब्द समाप्त होने को आए
फिर भी एक सवाल गूंज रहा है मेरे जेहन में
क्या लौट कर आएगा वो दिन
जिसे मैने गुजारा था मां के साथ.......



-----रजनीश

Tuesday, September 9, 2008

फर्क नहीं पड़ता





फर्क नहीं पड़ता



वक्त के राहों पर चलता जा रहा हूं ,
हवा के परों पर उड़ता जा रहा हूं ,
समन्दर की लहरों को छूना चाहता हूं,
ओस की बुंदों को पीने की ताक में रहता हूं ,
रेल की पटरियों पर दौड़ने की चाहत में हूं,
क्या ये हसरतें पूरी होगी हमारी ?
कौन देगा इसकी इजाजत हमें ?
इनसानों के चाहतों की उड़ान की कोई सीमा नहीं ..
एक खुशी मिलती नहीं, कि दूसरे की चाहत में लग जाते हैं,
एक मैं हूं, जो एक ही रास्ते की तलाश में हूं,
एक ही बूंद पीने की प्यास में हूं,
एक ही मंजिल पाने की आस में हूं........


-----रजनीश कुमार