Tuesday, December 31, 2019

।।जो गुज़र गया वो मेरा था ही नहीं, जो आने वाला है उसे मेरे सिवा कोई पाएगा नहीं।।

Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta


गुजरे हुए लम्हें अदम--राख़ का अफ़साना छोड़ गया, 
अमानत की ख्याल में वो लम्हें हक़ीकत का फ़साना छोड़ गया।।
हर रोज सुबह औऱ शाम होती, मानो उम्र अब धीमी आंच पर होती, 
जो गुजर गया उस साख की तलाश में, सारा जमाना छोड़ गया ।। 

अब तो दस्तक नहीं, मस्तक की टेक है, आने वाली हौसलाई सवेरों की, 
ढ़ल गई सियाह रात, निकला है सूरज, अब बात होगी बौराई बयारों की।। 
आक़िबत की फ़िक्र छोड़ अब तो वक्त आया, आज़िम वाली किस्सों की 
ख़ता ख़त्म कर ख़फा छो़ड़ दिया, अब तो बात होगी नई वाली मज़ार--ख़ुदा की।।

जो गुज़र गया वो मेरा था ही नहीं, जो आने वाला है उसे मेरे सिवा कोई पाएगा नहीं,
अंधी गलियों में अब कोई रोएगा नहीं, जो भोर वाली बात मेरे सिवा कोई सुनाएगा नहीं।। 
नफ़रतों की धूप भले बदन को झुलसा गई, लेकिन दरिया--राख में जलने से मेरे सिवा कोई बचाएगा नहीं, 
नई महफिल में नए चेहरों का लगा मेला है, फिर भी लगा ले शर्त, मेरे सिवा कोई गले लगाएगा नहीं ।।

नई रोशनी में अफ़सानों की फिराक तले, अब तो शब्दों सा ढ़लता जा रहा हूं, 
वक्त के पुराने दिये को बुझाकर, कहानीबाजी की मोम तले पिघलता जा रहा हूं।।
पूरा सफ़र आईनों की ज़द में है, फिर भी नई सोच तले अपनी शक्ल बदलता जा रहा हूं। 
अज़ीम ज़माने की खुशबू खुद की रूह में लिए, अब तो धीरे-धीरे संभलता जा रहा हूं।।

#कातिब  amp; #कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता  

अदम = शून्य, अमानत = धरोहर आक़िबत = अन्त, अज़ीम = महान

Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta


Saturday, December 28, 2019

।।लफ्ज़ कभी बेज़ुबान नहीं होती।।

Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta



मुलाक़ात करना है तो मातम का इंतज़ार क्यों,
जाओ कभी गैरत--गाह में फिर सोचना क्यों।। 
कभी राह--तमन्ना पर होगी तेरी-मेरी रवानगी 
फैसला आखिरी, जब केसरिया का लिया 
तो फिर गोशे वाली कब्र के धुएं की फ़िक्र क्यों ।।

अब तो आंधी ने ख्वाबों की आखिरी आशियां भी उड़ा दिए 
मोहब्बत वाली मर्सिया सुनकर जलते चरागों ने खुद को बुझा लिए।। 
बेमान बेबस बनकर नाउम्मीदी का कफ़न अब तो सरेआम यूं ही बिछा दिए
चले जो तुम दीवारों की कगारों पर,नजरें क्या मिली तुम यूं ही मुस्कुरा दिए।।

विरह की वार तले जूलियट समझ सारे शहर में तुम्हारे बुत यूं ही बना दिए
उस रात परवाने से मिलने आई, तो सारे शहर ने अपने-अपने ज़ख्म दिखा दिए।।
लफ़्फाजी की ऐसी जालसाजी थी, मानों फिर नई बेवफाई की कोई साज़िश थी 
ईश्क में ज़िदा होने का डर लिए,मैंने तो अपनी कब्र अपने हाथों से जला दिए।।

अब तक मौत के बाद भी ख़ुद को आज़ाद करने की फ़िराक़ में हूं
उस अंधेरी राह--सफ़र पर ख़ुद को तराशने की फ़िराक़ में हूं।
अब भी ना जाने क्यों आख़िरी सच की तलाश में थोड़ा उलझा हूं
थोड़ी दूर जो मिलेगी शमां उसे अभी से जलाने की फ़िराक़ में हूं।

तेरी इश्क्यारी वाली बातें याद है, कि इबादत की आवाज़ नहीं होती,
वो करवटों तले तुमने ही सिखाया था, कि खुदा की कोई साज नहीं होती।
समेट कर अल्फ़ाज खुद को खुद की ज़ुबान में सोचूंगा,
क्योंकि सब कहते हैं लफ्ज़ कभी बेज़ुबान नहीं होती।। 

कातिब & कहानीबाज 
रजनीश बाबा मेहता 

Monday, December 16, 2019

।।ये सर क्यों झुक सा गया है ?।।

Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta

ये सर ना जाने क्यों झुक-सा गया है,
चलती राहों पर क्यों रूक-सा गया है ?
गुरूर गर्व था मगर बेबसी बातों में क्यों थी,
सवाल दूसरों से नहीं बस खुद औऱ खुदा से पूछता हूं,
तेज दौड़ तो रहा हूं ,फिर भी ना जाने ये सर क्यों झुक-सा गया है ?

लहू का रंग एक, जिस्म की बनावट एक, 
मातृभूमि की शीष पर जन्म औऱ मरण एक, 
भूख एक, निवाला एक, ज़ुबान एक, आवाज एक,
धरती एक, आसमान एक, इबादत एक, आदत एक, 
फिर भी चलती राहों पर मेरी निगाहें क्यों झुक सा गया है ? 

सवालों की फेहरिस्त लिए चल तो रहा हूं 
लेकिन हौसला क्यों रूक-सा गया है ?

अरसे बाद वक्त ने बेवक्त आवाज दी 
चारों दिशाओं ने अपनी-अपनी परवाह दी 
गगन गूंज कर भरी भीड़ में हिदायत भी दी 
अल्लाह ने बिन मांगे कौम को कयामत भी दी
फिर भी लाल लफ्ज़ के आगे क्यों झुक-सा गया हूं ? 

बिन मांगे मिली मौत, अब हर पल का तोहफा क्यों नज़र आने लगी है,
एक ही धागों से बुनते कपड़े, लेकिन मेरी पहचान क्यों लिबासी होने लगी है ?
मुझको लूटते देख पौरूष, तेरे अंदर वही पुराना शैतान क्यों पलने लगा है, 
ये कैसी मोहब्बत-भरी-दुश्मनी है, जो सारे ज़माने को अंधी आंखों से नज़र आने लगी है। 

कातिब & कहानीबाज 
रजनीश बाबा मेहता