Friday, February 7, 2020

।।हसरतें।।



रत-जगों वाली जुगनू की हसरतें किसकी है, 
क्या अर्ज़-ए-हुनर की जमानत सिर्फ उसकी है।।
सलीकों वाली शर्त, उमर का लिहाज लिए किसकी है, 
हर ऐब को हुनर बताना, क्या ये आदत सिर्फ उसकी है ।।

लिया फैसला फासलों तले, कि उसकी जफ़ां पर खीचूंगा लकीरें, 
उसकी-किसकी भंवर से निकलकर, बनाउंगा हंसती हुई नई तकदीरें।।
फरिश्ताओं के फ़सानों पर फक्र नहीं, हर बातें उसकी झूठी जैसी थी,
अंधेरों तले सफेद ईश्क दिखती थी, जैसे मेरी लहू पर गिरती उसकी शमशीरें थी।

आज़ाद हो रहा हूं गुल-ए-शाख से, उसकी अजमाईश-ए-फरमाईश की तरह
खुद की शक्ल देखने की फिराक में, टूटने लगा दीवार पर लगे जर्ब आइनों की तरह।।
मरता है अब हर कोई कहानी-ए-गुल में, कोरे कागज तले अहवाल-ए-दिल की तरह, 
उम्मीद है फिक्र होगी उसे एक रोज, जब मोहब्बत टूटेगी कयामत-ए-गुल की तरह।। 

उस अंधेरी कासनी रातों में बारिश का बोझ लिए बुझता सूरज यूं हीं जलता रहा 
अंगीठी वाली ईश्क की फिराक में बादलों के बाहर चांद यूं ही सुलगता रहा ।।
फंसी मदीने के मुहाने पर नंगे पांव, जैसे तपती धूप में बर्फ ना जाने क्यूं पिघलता रहा, 
लो छोड़ दिया मर्सिया-ए-ईश्क की इबादत, फिर भी ना जाने कब्र में क्यूं जलता रहा।। 

जफ़ा- अत्याचार  ।। 

कातिब &  कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता