Sunday, November 26, 2017

शिव - शक्ति या मुक्ति

Writer, Director & Poet Rajnish BaBa Mehta

हाथ में सारंगी, जिस्म पर नारंगी 
सतरंगी दुनिया में साधु ,ज़ेहन से पूरी नंगी 
फैसला था खुद का, फासलों का डर नहीं 
नाचती मौत के सामने, खड़ा सबसे बड़ा भंगी। 

नादान बन राह नापता, बन हिमालय का सतसंगी 
भोर होता जटा समेटता, फिर कहलाता मैं तेरा मलंगी
राह चली जोगन मेरे साथ, कहती वो, तू शिव,मैं तेरी शिवांगी 
पहुंचा कैलाश, रख सारंगी, तूझे सुनने तो आतुर है, ये केसरिया बजरंगी 

बजा है डमरू, लगी है तान, 
गूंज उठा मानसरोवर का अभिमान।

मैं शिव हूं, या शव हूं,  तेरे सोच की मुक्ति हूं 
नीले बदन तले तेरे संसार में, एक ही शक्ति हूं 
राख वाले लिबास ओढ़े सुन, मैं ही तेरी भक्ति हूं 
तू बजा शंख, दे अजान, रह गया आखिर तक तू अनजान 
बंद आंखों से अब देख जरा, शमशान की आखिरी छोड़ पर खड़ा 
मैं ही तेरी भक्ति हूं, मैं ही तेरी शक्ति हूं, मैं हीं तेरी मुक्ति हूं। 
                                कातिब 

                              रजनीश बाबा मेहता 

Wednesday, August 30, 2017

।।वो आंगन अच्छा नहीं, जिस आंगन बच्चा नहीं।।

writer , Director Rajnish baba mehta
गोरखपुर में बच्चों की मौत पर हृदय वेदना से भर गया
मैं किसी को समझा नहीं सकता ना किसी को रोक सकता हूं 
बस शब्दों के जरिए व्यक्त जरूर कर सकता हूं 



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शहर--ख़ाक निकला है गलियों के गोशे से 
देखो जरा राख निकला है जिस्मों के पेशे से 
निगाह--नाज जो पहली मिली फरिश्तों के मेले से 
तू बचा ना पाया नन्हें कदमों को मौत--महफिल से
हवाओं की बंदिश पर जो झुलसता रहा रूकती सांसों से।।

कहां गया तू मेरा बचपन खराब करके, हमारी मौत उधार लेके
कब्र के कोनों से सुना था,आया तू मातम मनाने वो भी खुशियां खरीदके।
मिट्टी के खिलौने सा ख्वाब तराशा है तूने, वो भी इंसा को गिरवी रखके 
लिया है शाप तूने दीवारों की खातिर, अब गिरेगी साख तेरी वो भी राख बनके ।।   

 पूछ लेना खुद कभी अपने आंगन में बड़े-बूढ़ों के सिराहने से 
लफ्ज ना आएगी, बस एहसास की आखिरी आवाज होगी उसकी रूह से
 कि 
कोई दर कभी अच्छा ना होगा , ना कोई आंगन सच्चा होगा
अगर दहलीज पर खेलने वाला कोई मासूम बच्चा ना होगा ।।


।।गोशे- - कोना।।

कातिब

रजनीश बाबा मेहता 

Wednesday, August 9, 2017

गर्दिश-ए-रंग-ए-चमन

दुनिया के सबसे बड़े कब्रिस्तान वादी-अल-सलाम पर रजनीश बाबा मेहता की कविताएं


रोशनी है गर्दिश जैसी, अंधेरा है मुर्दिश जैसी 
चमन में रंग नहीं हल्की भी, फिर ये शोर कैसी
धुआंओं का जश्न फैली, आहटों के सन्नाटें जैसी 
रेंग रही काला आसमान, सर के उपर मातम जैसी ।। 

आखिरी कदम की मंजिल पर बैठा बेफिक्रा बनकर 
रास्तों की नींव हुई हल्की तो फिर ये ख्वाहिश कैसी
हाथों की लकीरों को लाल कर, खून जो आई माथे पर छनकर
किस्मत का कोरा कागज लिए फिर ये जीने की हसरतें कैसी ।।

जो चार जणा मिल छोड़ गया तू, मस्तक पर पूरी राख मल गया तू
अफसोस की जंजीर लिए, आएगा एक आखिरी बार जरूर तू 
उस रोज मुलाकात होगी मेरी तेरी, पता नहीं आज क्यों गुरूर कर गया तू
लो वक्त ने ले ली करवट, समेटकर जिस्म अब क्यों सिसक रहा है तू।।

आज है तू चांद सी राह पर, दे रहा हूं अपना पता तेरी हस्ती छोड़कर-भूलकर  
बसता हूं मैं इराक--नजफ की वादी-अल-सलाम की पहली मोड़ पर
क्यूं खड़ा है अब बाहर, क्या अब भी उम्मीद का पैमाना टूटा नहीं मरकर 
जाओ, बसता हूं मैं इराक--नजफ की वादी-अल-सलाम की पहली मोड़ पर

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

।।वादी-अल-सलाम- इराक के नजफ में दुनिया के सबसे बड़े कब्रिस्तान का नाम है।।नजफ- इराक का एक शहर ।।


Monday, July 31, 2017

।।वो अपना था, या था पराया।।

Poet,Writer, Director Rajnish BaBa Mehta 

मेरे शब्द आज ना जाने क्यों कांपती हुई निकली 
देखो जरा कहीं गलियों में वो नंगे पांव तो नहीं निकली
सवेरों की धूप से मचलती गलियों की आंख लगती रही 
खामोश क्यों है गलियां , देखना जरा झरोखों की दरारों से 
बंद ज़ुबान कर कहीं, पाज़ेब को हाथों में लेकर तो नहीं निकली ।।

भीगी लटों की तरसती बूंदे, रास्तों पर गिरकर क्यूं बिखर रही है 
शोख अदाओं सी चेहरे पर , ये काजल ना जाने क्यूं संवर रही है 
बिखरी लटों की लहरें, गुलाबी होठों पर क्यूं धीमी-धीमी मुस्कुरा रही है 
देखना जरा दरवाजों पर ,कहीं सारंगी वाले फकीरों के मेले तो नहीं निकली 
बरसाती रातों का फिक्र छोड़, देखना जरा कहीं बिना सिंदूरी माथा लिए तो नहीं निकली।।

बेपरवाह जिस्म--जोश लिए, सर्द रातों को गर्माहट में बदलने की आदत उसकी 
छोड़कर आना उसे मुहाने के मस्तक पर, क्योंकि लौटने की आदत है उसकी 
शहर भर के भौरे को खबर कर देना, क्योंकि गुनगुनाने की आदत है उसकी 
सांकल बंद कमरों में दफन करना, क्योंकि उड़ने की आदत जो है उसकी 
फिर भी ज़िदा रहेगी ज़ेहन में, क्योंकि संगीत सी सोने की आदत है उसकी

अब फिक्र का ज़िक्र छोड़, निकला हूं नंगी गलियों में सफेद लिबास लिए 
रोती आंखों की बूंदों में शब्दों को दफन कर, खड़ा हूं चेहरों पर मातम लिए 
मरघट में सन्नाटों की चीख तले, देख रहा हूं उस रूह को, जो नंगे पांव निकली
वो अब अपना था, या था पराया, यही सोचकर पूरी ज़िदगी की आखिरी शाम निकली।। 

कातिब  
रजनीश बाबा मेहता  



Sunday, July 23, 2017

।।कुछ पुरानी वारदात।।

Rajnish baba mehta Poet Director


वो ईश्क मोम सा था, जो धीरे-धीरे पिघलता चला गया 
वो अश्क आह सी थी, जो आंखों में धीरे-धीरे सुलगता चला गया
हर लम्हा आहट सी बनकर, फासलों से यूं ही गुजर गया 
वो मेरी गली से आखिरी बार जो गुजरी, मैं झरोखों पर मचलता रह गया ।।

वक्त की रेत जिस डिब्बी में बंदकर, मेरे सामने यूं हीं छोड़ गई 
उस रेत को पाने की तमन्ना में, मै हर रोज यूं हीं बिखरता चला गया ।।
सरे-राह मिली तो नजरें झुका,  हाथ पैबंद कर परायों में बेखबर चली गई 
मेरे ईश्क्यारी की छांव तले, वो गुनाहगार भी हर पल संवरता चला गया ।।

वो संवर गई महबूबा--चांद, और मैं बिखर के कभी सिमट ना सका
बंद कमरे में जो अश्क मोतियों से बहे, उससे ना तो तू, ना मैं कभी पिघल सका
तालों की तहरीर पर कोई तवारीख लिखकर, फिर कभी मिटा ना सका 
जो आया था उम्र के समंदर को पारकर तेरे दरवाजे पर आखिरी बार 
जिस्म की ख्वाहिश पूरी की, लेकिन मौत को मिटा ना पाया इस बार ।।

इल्जाम--इश्क की कहानी, खुद के कलम की रवानी लिखूंगा 
दौर--जुनूं के इम्तिहान में, दो जिस्मों की खून से, पानी लिखूंगा 
शौक को दरख्त में दबाकर, तेरी ज़ुबानी खुद की जवानी लिखूंगा 
ना मिले तुम ,ना मिले हम, तो फिर अपनी वारदात पुरानी लिखूंगा 

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 
                         ।।ईश्क्यारी-प्रेमिका ।।

Tuesday, July 18, 2017

।।रहगुज़र।।

Rajnish BaBa Mehta
Writer,Director


रिश्तों पर रोशनी रख रहगुज़र
वरना वफा परिंदा सा हो जाएगा 
रास्तों पर रिश्तों को ना आने दे रहगुज़र 
वरना वक्त की रेत में तू राख सा हो जाएगा।

अंधेरी कासनी रातों में तू डर, खुद के ख्यालों से 
वरना मांग ना पाएगा तू अपना जिस्म रहमवालों से 
जब असफ़ार--ज़नाजा निकलेगी रोती गलियों से एक बार 
जलता जिस्म बचा ना पाएगा, कब्रिस्तानों के रखवालों से। 

ऐहतमाम रख तू, जो अगर चला कभी बेवफाई के कबीलों में 
उक़ूबत सहने की औकात रख, अगर ज़िक्र हुआ तेरा फकीरों के मेलों में 
ना दुहाई देना फिर अपने फ़िदाई के फासलों की ,अमीरों की महफिल में 
जब हिसाब होगा गुनाह--इश्क का,जब रश्क होगा तेरी आंखों में इश्क का 
ज़िक्र--आम तो होगा तेरा, लेकिन जगह होगा वो कयामत की जेलों में ।। 

अब सोच को सच्ची साज़ दे, अपनी जिस्म को रूह वाली हल्की आवाज दे 
फिक्र की गलियों का जिक्र छोड़, अपनी ज़िंदा जिस्म में थोड़ी जान तो फूंक दे।।
बस ख्याल रखना रिश्तों का रहगुज़र, वरना वफा परिंदा सा हो जाएगा 
अगर रास्ते पर आए रिश्ते, तो तू फिर वक्त की रेत में राख सा हो जाएगा।।

कातिब  
रजनीश बाबा मेहता 

असफ़ार= सफर।।ऐहतमाम= व्यवस्था।।उक़ूबत= यातना।।फ़िदाई-प्रेमिका।।

Friday, July 7, 2017

।।पुस्तक में, मस्तक की दस्तक।।

Writer,Director Rajnish Baba Mehta
मैं जहां होता हूं, वहां रहता नहीं 
जहां रहता हूं,  वहां होता नहीं 
ये मस्तक की कैसी है दस्तक 
ढूंढ़ रहा हूं समझने की कोई पुस्तक।।

सोचता हूं , तो खुद में समेट नहीं पाता 
समेटता हूं , तो उसे खुद में सोच नहीं पाता 
क्या, ये ख़लिश भी, खिलाफ है जलाल-- ख्वाहिश की
या ग़ुजीदा गुनाह है, या फिर, इम्तिहान है मेरी आजमाईश की।।

ज़मीर गिरवी रख तेरी मिट्टी पर, ज़ामिन बनकर जो आया 
ज़ियारत कर रहा कलम के दम पर, मगर ये ज़र्ब कैसे निकल आया
एहसास--ज़लाल का फ़िक्र--ज़िक्र हुआ जब, तो दुनिया ज़ार-ज़ार हो गई 
नादीदा नाफ़हम जो अब तक था, वो नाफ़र्मान की नब़्ज भी अब गुलज़ार हो गई।।

अब तक जो हुआ, लगता था, ज़ज्बा बेलगाम हुआ शायद 
मैं जहां रहता था, जहां होता था, लगता है वहां इश्क का इंतजाम था शायद
मेरे होश में आने की खबर नहीं उसे, लगता है मयखानों में पैगाम नहीं मिला शायद
सांसों की गिरह बांध,समेट लिया खुद मैंने,लगता है उसे मेरी उड़ान अंदाजा नहीं शायद।। 

अब मैं, जहां भी होउंगा,गम़्माज़ों के शहर से, मुझ-तक कोई रास्ता ना होगा 
समेट कर सोच को, बिखेर दिया शब्दों में, लेकिन तेरा-मेरा कोई वास्ता ना होगा
सारंगी लिए साधुओं की महफ़िल में मिलेंगे कभी,उस वक्त मेरा साज सस्ता ना होगा 
बंद कर लेना आंखें अपनी फ़िरदौस के मेले में,क्योंकि क़ातिब जैसा कोई फरिश्ता ना होगा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


खलिश-पीड़ा ।।गुज़ीदा= चुना हुआ।जलाल= विशाल।।ज़मीर= मन, हृदय, विचार।।ज़ामिन= विश्वास दिलाने वाला,  जमानतदार।।ज़ियारत= तीर्थयात्रा, धर्मस्थल पर जाना।। ज़र्ब= घाव।।ज़लाल= गलती।।नाफ़हम= मूर्ख।। नाफ़र्मान= आज्ञा मानने वाला।।नब्ज़= नाड़ी की गति, नाड़ी की धड़कन।। गुलज़ार= उपवन, फूलों की क्यारी।।गम़्माज़= भेदिया, चुगलीबाज।।फ़िरदौस= स्वर्ग, उपवन।।क़ातिब - लेखक।।

Wednesday, July 5, 2017

।।तू पीर की मजार, मैं साधुओं की समाधि का संसार।।

लेखक,निर्देशक रजनीश बाबा मेहता 


जिस इश्क में आह ना हो ,वो इश्क बेपरवाह सा है 
जिस इश्क में ख्वाब ना हो ,वो इश्क राख सा है ।।
जिस इश्क में ज़ुबान हो ,वो इश्क नाफ़रमान सा है 
अगर हर इश्क की इबादत हो  ,
तो फिर कयामत में भी इश्क होगा ।।
सात पैबंद से बनी दुनिया हठ सा होगा 
जब बात इश्क की होगी,तो हर दरवाजा मठ सा होगा।।

खोल देना दरारों में डाल उंगलियां इश्क की 
पूंछूंगा सवाल जिस्म की, थोड़ी बारिश कर देना अश्क की
दिखेगी दरारों से शक्ल शायर की, फिर भी ईश्क होगी रश्क सी।।
खुलेंगे कुछ पुराने खत ख्यालों के, धूल भरी किताबों की गांठों में    
कुछ रूह सी शब्दों में एहसासों के, बंद पड़े तालों औऱ बक्सों की साठ-गांठों में।।

रोकना ना कदम जब होगी उम्र पूरी क़फ़स तले इम्तिहान--इश्क की 
तोड़ बंदिशो को नाप लेना जमाने के लिए बन सफेद सा नमाज़ी--गुज़र सी 
रमजा़न सा आउंगा अब्द सा लिबास बदन पर लिए अब्सार--ईश्क सुनाउंगा 
वीराने ईदगाह में कब्र के कोनों तले एक दूसरे के लिए फातिहा जो गाउंगा 
तू पीर की मजार बन, मैं साधुओं की समाधि का संसार बन जिंदा जो रहूंगा 
वो इश्कगाह की कब्रगाह में उम्र आंसूओं तले मोतियों सी चमकती ही बुनूंगा ।।

लो मौत की दस्तक ख़जां भी क्या खूब लाई है इश्क के तकिये तले 
जिस्म में बांध जंजीर चार जणा माथे उठाए,तेरे थोड़े अश्क यूं ही मिले  
फ़कीरियत का पैमाना अब ईश्क का इश्काना हठ पर भारी है   
कब्र के कोठों पर खड़े वो इश्कबाज के आगे जो पूरी दुनिया हारी है 
अब सोच और सपनों की सांसों से स्याही की तकदीर शब्दों में जारी है 
फिक्र ना करना अज़ीम बनने की क्योंकि हर बार बेचारी इश्क ही हारी है  


कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


क़फ़स= पिंजरा।।अब्द-परमात्मा का दास।।अब्सार= आंखें।।ख़ज़ां (ख़िज़ां)=  वृद्धावस्था।।अज़ीम= महान।।

Monday, June 26, 2017

।।ईश्क की ज़िद या ज़द।।


Rajnish BaBa Mehta Poem
ज़िद थी उसके जश्न में 
जान थी उसकी सांसों में 
धड़कती रही बिस्तरों के किनारे 
सिसकती रही बंद सासों के सहारे।
सोचा मकसद पूछ लूं वक्त तो है 
लेकिन झट से मसलन बढ़ा दिया 
मैं भी गोल तकिए की भांति 
ज़िंदगी के मसले को दबा दिया। 

बंद कमरे में दफन राज जो हुआ 
आज अर्से बाद उससे मुलाकात जो हुआ 
पूछ बैठा अपना सवाल , क्यों नहीं आई थी उस रोज 
इश्क तो था हर रोज, लेकिन भरोसा नहीं किया उसने किसी रोज। 

क़ातिब हूं, मेरी तासीर को स्याही से नापा नहीं तूने 
पन्नों पर लिखे शब्दों को पढ़, फिर भी कभी जाना नहीं तूने 
बंद आंखें लिए गुजर तो गई, लेकिन कब्र को पहचाना नहीं तूने 
खुदा का शुक्र है जो लेटा हूं उसके दस्तरखान में बे नज़ीर बनके 
वरना फकीर तो था मैं तेरे इश्क का,जहां इस अमीर का कभी कद्र नहीं किया तूने।।

अब सोच लिया सांसों की सिलवटों के तले, पूरी रात को भी गले से यूं ही लगाउंगा 
खुद में खुदा को खोजकर उसके तलवे तले, मौत को तेरे इश्क से हसीन बनाउंगा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

।।तासीर -प्रभाव।।क़ातिब-लेखक।।बे नज़ीर= जिसके कोई बराबर का हो।।


Wednesday, June 14, 2017

।।खुद ही खुद सोचो।।



खुद को मरते देखा कभी ? आज देखा
खुद को मरते भी देखा, औऱ जिस्म को गिरते भी देखा 
वो शोर भरी सन्नाटों में रातों को रात-रात भर रोते देखा
मरघट की बल्लियों को चिताओं पर सुस्ताते हुए भी देखा 
बस जिंदगी की भीड़ में जिंदगी को जीते, आज-तक ना देखा ।।

सोच को पालने में कभी पलते तो कभी गिरते-प़डते देखा , भूल गए तुम 
खुद के बचपन को इस यौवन में बिखरते देखा, और बुढ़ापे को संवरते देखा
गम्माज़ों को गले लगकर तुम, अपनों से दूर होते, खुद को कई बार क्यों देखा 
क्या फिक्र नहीं थी आंचल की, या फक्र था उस दो पल के सुहाने लम्हों पर 
हश्र तेरा भी वैसा ही होगा,जैसे तपती दोपहरी में सूरज को धूप के लिए तरसते देखा।।

ये वक्त कैसा है ? ख़लिश की बाहों में लड़ते-लड़ते तुम्हारी मौत को खुदा भी ना देखा 
वो जश्न कैसा था?जिसे जीते-जीते,तुमने खुद के साथ-साथ,जिंदगी को भी ना देखा।
काश लौट आते तुम, उस मरघट तले से, जहां जिस्म खुद को मरते देखा करते हैं  
काश उठाकर देख लेते आंचल तुम, जहां तुम्हारी फिक्र में कोई रात-रात भऱ रोया करते हैं ।। 

गम्माज़- चुगलीबाज।।ख़लिश-पीड़ा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


Tuesday, May 30, 2017

बाज़ार-ए-ईश्क

RAJNISH BABA MEHTA WRITER DIRECTOR POET



सितारे समझ नहीं आया, कि सांसो के सहारे 
सपने उलझ नहीं पाया, कि दुनिया गम के किनारे 
रात चादर लिए अंधेरे में,अकेले, जुगनुओं के सहारे।।
लो नंगी कदमों की आहट लिए चल पड़ी वो शायरा 
थी चादर में वो लिपटी, सामने था कौन बनकर वो बेचारे ।।

अगर भोर हुई होती वक्त की, कर लेता उसकी परवाह, छोड़ अपने रक्त की ,
लिपट जाता सांसों में उसकी, मिटा देता सिंदूर सी स्याही, उसके मस्तक की।। 
सौदा इस बार महफिलों की थी, जो तू चिलचिलाती धूप की तरह नाची 
गुजर रहा था जो पास ही वो शाम थी,नजरें मिली ,ना इंतजार किया दस्तक की।।

तेरी गली में लगेगी इश्क औऱ बेवफाई की जो इस बार बाज़ार 
खुश्क गले को साथ आउंगा, रात टहनियों तले उस भीड में गुजारूंगा 
हर हाथ उठेंगे, हर आंखों में पलेंगे,बस दरवाजों के बाहर होगा एक ही इंतजार 
हरे लिबास में निकलेगी गलियों तले, लोग बस यही पूछेंगे, कहां बनेगी तेरी मज़ार।। 

इबादत होगी हर रोज ,ढलती शाम--उम्र के आगे, जहां होगी तेरी मज़ार 
फिर ईश्क की बात तो होगी, लेकिन लगेगी नहीं तेरी बेवफाई की बाज़ार ।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


Tuesday, May 23, 2017

।।सर्दी की एक बात सुनो।।

Rajnish Baba Mehta writer Director Poet


सर्दी की एक बात सुनाऊं 
थोड़ी अजीब लगेगी
लेकिन सुनाता हूं
नहीं तो मेरे जिस्म में पेवस्त
कुछ ज़ेहन में भी शब्द शोर मचाते हैं।
लगी थी आग दोनों तरफ
बीच में बैठी थी पसीने में लथपथ
साड़ी घुटने तक समेटे हुए
हाथ तेज़ी से रफ़्तार पर थी
मैं कोने में दुबका ताके जा रहा था।
दोनों तरफ जल रही थी चूल्हें
रोटियां जमकर बेले जा रही थी
एक पर तवा तो दूसरे पर तशला
हाथों में मानों बिजली सा करंट था उसके
भोली-भाली देहाती सर्दी में भी पसीने से तर-बतर
सामने चूल्हे से आग की लपटें उठ रही थी
गर्मी भी तेज लग रही थी ,मज़ा भी ख़ूब आ रहा था।
धुआं उसे लग रहा था , लेकिन जलन मेरी आंखों में हो रहा था।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता