Saturday, March 23, 2019

।। मुझे जोगी ही रहने दो।।

Poet, कहानीबाज & सिनेमाई साधु & Director Rajnish baba Mehta with marry kom 

एक कहानी कह लेने दो 
वो आखिरी निशानी छू लेने दो ।। .
इस बार प्यार नहीं, परिभाषा बदलेगी 
बस उसके जज़्बातों को लबों से छू लेने दो ।। .

सफर में अगर कभी रात होगी, तो होगी रोशनी
उस चाँद को अपनी चांदनी तले, सूरज को छू लेने दो ।। .
महफ़िल लगी है सरेबाज़ार चैराहों पर लफ्फाज़ी की 
आखिरी लफ्ज़ की तलाश में, अब उस नापाक इश्क़ को छू लेने दो ।। 

सूर्ख धागों से बुनी लिबासों लाल की लालच नहीं है मुझमें
जो किरदार पसंद है मुझे , हर पल मुझे उसी में रहने दो।।
ये तो वक्त की बेवक्त आवाज है, वरना हम भी जागते जोगी हैं,
क़यामत--खाक़ गुजारिश है तुझसे ,कि मुझ जोगी को जोगी ही रहने दो।। 

ये लम्हा तो वक्त के पल दो पल की बस आजमाईश सी क्षणिक है
फिसलती रेत की जैसी अपनी आवाज तले,अब मुझे मेरे ख्वाबों में जीने दो। 
पता है मुझे खुद के सांसों की, जो हवाओं के परों पर खूब पलती है 

सुनहरे सपनों की चादर तले रोज सोता हूं, कि अब मुझे मेरे हक़ीकत में जी लेने दो। 


कातिब &कहानीबाज 

रजनीश बाबा मेहता 







Tuesday, March 12, 2019

।।खुद की आजमाईश।।

Poet, Writer & Director Rajnish BaBa mehta 


दो लफ्जों वाली सुनी-अनसुनी बात है, 
शायद आज खुद से आखिरी मुलाकात है।।
रोती राहों में ढ़ूंढ़ती तमन्नाओं की अकेली आस है,
ना जाने क्यों जिंदगी लगती बाजी की आखिरी बिसात है।।

सोच के परों पर साहिल समंदर तले सिसकती सांस सी है 
जो उठी है लहर रेत तले वो लौ जैसी भभकती फांस सी है ।।
बोझिल कदमें ,बोझिल लम्हें झुलसती हवाओँ में कहती काश सी है,
ये आऱाईश वक्त की जो ठहरा है रक्त में वो कैसी आजमाईश सी है । 

गलियों से गुजरती शाम वाली भोर तले, शक क्यों है खुद की साख पर
बहार-ए-हिज़्र में तौला है खुद को, फिर भी ना जाने क्यों खड़ा हूं राख पर।। 
दिल दिलासाओँ के भंवर में तैर रही, फिर भी तमन्नाओँ वाली बात क्यों खाक पर। 
ना कोई दवा है ना कोई मशवरा-ए-दुआ है, फिर क्यों खामोश हूं खुद की फिराक़ पर ।। 

सफ़र की सोच तले अब सजा रहा हूं खुशी चेहरे पर 
जो काफ़िया ग़म का कभी गोशे में उभरने ना दिया ।।
गुज़रे ज़माने की बात कर, हर लम्हों को यूं ही खराब ना कर 
क्योंकि ख्वाहिश वाली मसर्रत जिंदगी को उस पल जो संवरने ना दिया ।।

ख्वाबों वाली अब भोर भी होगी, ख्वाहिशों वाली अब शोर भी होगी , 
अंधेरी कासनी रातों तले जो गिरे आंसू, वो भोर में उम्मीदों वाली सैलाब होगी। 
सफर सोच की हर पल ज़िंदा जैसी होगी , गरीबी में भी अब गुरबत वाली बातें ना होगी। 
मकाम जब जश्न की होगा, तो रोशनी तेरे घर भी होगी , रोशनी मेरे घर भी होगी।।

कातिब & कहानीबाज 

रजनीश बाबा मेहता  

Sunday, March 3, 2019

।।कब्र वाला मंदिर।।

POET, WRITER & DIRECTOR RAJNISH BABA MEHTA

हर साख वाली गुरूर जहां राख हो जाती है 
जहां हर सख्त वाली तख्त भी भंवर हो जाती है ।
महलों की जागीर यहां , मनहूस मातम मनाती है 
कब्र की जद में लेटे हैं , ख्वाबों को अब भी समेटे हैं।
किस्मत का फेर है कि, यहां कब्र भी मंदिर कहलाती है ।।

मासूम मखमली बदन तले लपेटकर, सदियों के लिए सोए हैं 
अपनों की भीड़ में लेटे हुए, ना जाने क्यों पूरी दुनिया से खोए हैं । 
ख्वाहिश-ए-ख़ाक हुई, जिस्म राख हुई, फिर भी अकेली आंखे जो रोए हैं
जली है चिताएं चौबारे पर बारी बारी, फिर भी बीज ना जाने क्यों बोए हैं ।
किस्मत का फेर हैं कि धूप तले आज भी, यहां कब्र ही मंदिर तले सोए हैं ।। 

कभी जो गुरूर गौरव था , कभी जो गुरूर आन था, कभी जो गुरूर गान था
अब सूखी मिट्टी तले वो गुरूर, श्मशान में बस सोती सिसकती शान था ।
महलों तले कभी इठलाती जिंदगी, अब वो मौत के सामने सिर्फ अपमान था, 
काश रोक लेता लम्हों को, रोक लेता सांसो को, जो आखिरी समर तेरा शेष था।  
किस्मत का फेर है कि, उस वीरान में अकेला तेरा कब्र , रूठे मंदिर जैसा ही था ।।

जो खुला घर छोड़कर जाएगा , ना कभी तू लौट कर आएगा 
सख्त वाली तख्त कि फिराक में, अब कभी पैबंद ना तू लगा पाएगा ।
सदियां शौक से सुनेगी तेरी दास्तान, जो तू अब मिट्टी का मूर्दा हो जाएगा 
जिंदगी की बिसात पर, चली है मौत आखिरी चाल, जब फिरदौस भी फना हो जाएगा ।
किस्मत का फेर है, कि फिर भी तेरा वो वीराने वाला कब्र,  मंदिर ही कहलाएगा  ।।

कातिब &  कहानीबाज 
रजनीश बाबा मेहता 




नवंबर 2018 में गोल्डन सिटी जैसलमेर की यात्रा के दौरान कई कहानियों को तराशने की फिराक में था। हालांकि अपने सबसे बेहतरीन दोस्त के साथ जैसलमेर में एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था, और इसी बहाने मुझे कहानीबाजी करने का मौका मिल गया। फिर क्या था जैसलमेर की हर गलियों की धूल मेरे पैरों पर चिपकती चली गई। हर गली में कोई ना कोई महल, औऱ उस महल के पीछे उसकी अनगिनत दास्तान। कुछ सुनी-सुनाई तो कुछ अनसुनी कहानियां अपने झोले में समेटते जा रहा था। इसी दौरान मैं एक ऐसे जगह पर जा पहुंचा जहां सिर्फ और सिर्फ मंदिर के गुबंद बने हुए थे और नीचे छोटा चबूतरा। एक पल के लिए तो लगा कि मंदिरों का शहर है कहानियां तो इसके पीछे होगी जरूर, लेकिन पता चला कि वो मंदिरों का शहर दरअसल जैसलमेर राजघराने का श्मशान घाट था । कितनी अजीब है मौत की परिकल्पना, औऱ कितने अजीब हैं उसके रिवाज। सोचने पर कभी कभी दम घुटने लगता है क्योंकि कुछ इंसान अपनी मौत में भी जिंदगी देखता है। मरघट में भी राजसी अंदाज में जीने की परिकल्पना करता है, लेकिन शायद उसे पता नहीं कि लिबास कोई भी हो, शरीर का आखिरी अंजाम मिट्टी ही है।  


JAISALMER YATRA ।।कब्र वाला मंदिर।।