Saturday, July 25, 2020

।।सुबह-सुबह वाली शाम।।



एक यादें ही तो है, जो हमेशा खूबसूरत होती है
वो पुरानी राहें ही तो है, जो दरिया--सुक़ून होती है।।

गट्ठरों की ढ़ेर जैसी यादों के होते भी 
जब दिल में वीरानी होती है, तो हैरानी होती है।।

यादों के दरम्यां जब टूटे लफ़्ज औऱ बिखरी बातें हो , 
तो उसकी यादें सिर्फ बेज़ुबां निशानी होती है।

झरोखों के करीब गलियों में जब बेनाम साए हों, 
तो वहां उनकी हसरतों की ग़ुमनाम ख़्वाहिश होती है।।

लौट आने की ज़िद में जश्न--फ़िराक़ लिए बैठे हो, 
जैसे सन्नाटों की सड़कों पर, रूह़ की सुकून से बात होती है। 

हर्फ़-दर-हर्फ़ की आज़माईश में अपनी अक़्स तले लेटे हो, 
जैसे कब्र के सिराहने तले, अकेले-अकेले ही मुलाकात होती है।।

लौट जाने की फ़िक्र में बादलों के किनारे धीमी सांसों के सहारे हो 
अब तो ख़्याली ख्व़ाब के इंतज़ार में सागर भी सिसक रही होती है।।

मुकम्मल मुकद्दर कभी मिला नहीं, फिर में दामन में रात समेटे हो,
अब तो ना जाने कैसे एक पल में सुबह-सुबह ही शाम होती है।।

एक यादें ही तो है जो हमेशा खूबसूरत होती हैं
वो पुरानी राहें ही तो है जो दरिया--सुकून होती है।।


कातिब & कहानीबाज 
रजनीश बाबा मेहता 

Tuesday, June 30, 2020

।।सब कुछ रूक सा गया।।

Writer & Director कहानीबाज RAJNISH BABA MEHTA


कोरे कागज़ पर लिखते-लिखते, आंखों के रस्ते दिल में उतर गया 
लम्हों के इंतज़ार में अधूरी ज़िंदगी, धीरे-धीरे बरसों में गुजर गया ।। 

रूहानी लफ़्जों तले हर रोज किस्सों की नई बानगी सुनाती रही 
फ़ासलों की फ़िक्र लिए,फैसले की फिराक़ में, सब कुछ रूक सा गया।।

डूबती क़श्ती के किनारों पर ना जाने, कौन सी क़यामत ढ़ूंढ़ती रही 
किनारों की तलाश में उस रोज, ना जाने क्यों पानी पर बिखरता चला गया।।

पिघलती मोम सी अश्क़ लिए, ख़्वाहिशों की निशां पर खूब हंसती रही 
दरकते दरख़्त की दरारों में, ना जाने क्यों अकेले ही सिमटता चला गया।।

सरे-राह मुलाकात के ख़्याल में मिलती हर रोज, फिर भी वो नजरें चुराती रही 
पाने की तमन्ना लिए हर पल खोते हुए भी, साख समझकर राख पर चलता गया।। 

बिखरती राहों पर गुजरते वक्त के साथ वो हर पल संवरती रही     
रूठी तक़दीरों की तलाश में, मैं ख़ुद मेरे पास से ही निकल गया ।।


कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

Saturday, May 16, 2020

।।रेत, रूह औऱ सुकून।।

Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta 

रेतीली जमीन की गरमाहट सांसों को जगा गई 
एक पल लिए क्या रूकाजिंदगी सबक सिखा गई  
कभी समंदर की गवाही देती ,ये  रेत अफ़सानों में समा गई
छूटे लम्हों की लकीरों पर, ना जाने क्यों अधूरी दास्तान छोड़ गई।।

बनाकर उसने मेरे संग रेत का महल
जाने क्यों बारिशों को खबर कर गई।।
मैं तपती रेत पर बिखरता रहा 
वो ना जाने क्यों सागर की बूदों में समा गई।

अब तो रेत की टीले सी है ज़िंदगी 
जो वक्त की आंधी, ज़र्रा-जर्रा उड़ा गई।
आखिरी बार मिली, कुछ खास रेतीली रिश्तों के दरम्यां 
जो अतीत की लिहाज़ में अपना ही अक्स छुपा गई।।

भरोसों के भंवर में किस्मत रेत सी, कुछ यूं ही फिसलती चली गई
जब तक उसने जीने का मतलब समझाया, जिंदगी ही निकल गई।
सोचता हूं सुलगती रेत पर नरम हाथों सें, दरिया--इश्क लिख दूं 
मगर बदकिस्मती रेत की, अब तो रूह से सुकून ही निकल गई। 

कहानीबाज & कातिब 
रजनीश बाबा मेहता