Monday, October 27, 2008

क्या हुआ...तुम्हरी जिंदगी को...


क्या हुआ...तुम्हरी जिंदगी को...




हर राह को जलाती धूप के समान है तेरी जिंदगी
खामोश धड़कन की एक तलाश है तेरी जिंदगी।
क्यो ढ़ूढ़ते हो तुम अपनी परछाई को अंधेरों में
क्यों देखते हो तुम सपने दिन के उजालों में ?
क्यों वास्ता नहीं है तुम्हारा हकीकत से
क्यों दूर रहते हो तुम दिन के उजालों से ?
हर राह पर चलने की फिक्र है तुम्हें
हर ख्वाब को पूरा करने की फिक्र है तुम्हें।
फिर भी रात के अंधेरों में भटकते हो तुम,
क्यों नहीं, एक चाहत लिए, जिए जा रहे हो तुम।
तुम्हारी जिंदगी तुम्हारे लिए नासूर बनती जा रही है,
फिर भी न जाने हकीकत से क्यों दूर हो तुम।


-----रजनीश कुमार

Friday, October 24, 2008

जाति क्या है ?


जाति क्या है ?



जो जाती नहीं वही 'जाति' कहलाती है। हर मनुष्य की फितरत है कि वो अपनी जाति के बारें में कभी न कभी जरूर सोचता है। अगर कोई इंसान यह कहता है कि मैं 'जाति ' विशेष को नहीं मानता हूं, तो वह अपनी जिंदगी का सबसे बड़ा झूठ बोल रहा है। कभी न कभी इंसानी जिंदगी में एक ऐसा मोड़ जहां वो अपने स्वार्थ के बारें में ही सोचता है। तब वो अपने सारे वसूलों को ताक पर रखकर अपने और सिर्फ अपने ही बारें में या फिर लाभ के बारें में ही सोचता है। यानि इंसान भले ही कितना बड़ा ही क्यों न हो वह अपनी जाति के बारें में कभी न कभी जरूर सोचता है। तुम भी सोचना मेरे दोस्त क्योंकि मैं नहीं सोच रहा हूं।

-रजनीश कुमार

Sunday, October 19, 2008

मैं निजामों के शहर में था..मैं मुगलों के शहर में हूं...






मैं निजामों के शहर में था.......अब मैं मुगलों के शहर में हूं...







एक धुंध सा भरा सवेरा मैनें, निजामों से शहर में देखा
एक दूसरा सवेरा मैंने मुगलों के शहर में देखा।
याद आती है वो पल जिसे मैंने गुजारा था निजामों के शहर में,
जहां हर दीवारों के जर्रों में एक झलक थी दीवानों की
एक ऐसा शहर जहां मोती खुद को ही पिरोते हुए नज़र आती थी।
जिसकी बिरयानी खुद की स्वादों को चखने के लिए हरपल भूखी नजर आती थी।
जिसके सागर की लहरों में, खुद की उफान को देखने की तमन्ना लिए, पलकें बिछाए रहती थी।
जिसकी फिज़ाओं में दिखती है एक इतिहास के पन्नौं की जैसी कहानी ।
रात होती तो जगते जुगनुओं के समान होती इंसानी जिंदगी
जिसको जीने की तमन्ना लिए आज भी उगते सूरज की ओर देखता हूं मैं।
जब से मैंने छोड़ा निजामों के शहरों को
एक बूंद गिरी मेरी आंखों से, वो आंसू जो आज भी मुझे याद है
जिसे मैने देखा और वो बूढ़ी आंखों ने देखा।
जो मेरे सामने मूक बनकर, मुझे उन्ही आंखो से घूर रहा था।

आज मैं मुगलों के शहर में एक अनजाना परिंदा बनकर घूम रहा हूं
न तो तुम मुझे जानते हो न वो तारें जो मुझे दिलासा दिलाते हैं अपनी काबिलियत की।
दौड़ती जिंदगी के जैसा इस शहर में, हर कोई दिखता है अनजाना
जहां दूसरों से पूछता है, हर कोई अपना ठिकाना।
लोगों को डर है कि इस चलती भीड़ मे गुम न हो जाए..
इसी गुमनामी से डर मैं किनारे पर बैठकर देखता हूं इस भागती भीड़ को।
कितना मुश्किल है इन्सानों की जिंदगी में,
हर कोई सोच कर इसे भूलने की फिराक में रहता है।
अगर कुछ न मिला तो, खुद को ही ढ़ूढ़ने की तलाश में रहता है।
हर कदम पर मिलती मुश्किलों को नकारता जा रहा हूं,
हर बार यही सोच कर चलता जा रहा हूं मैं,
कि निज़ामों के शहर को तो मैं भूल नहीं पाया,
लेकिन मुगलों के शहर में मैं खुद को ही ढ़ूंढ नहीं पाया।
---------------रजनीश कुमार

Thursday, October 9, 2008

ऐ खुदा....मैं हूं अकेला.....!


ऐ खुदा....मैं हूं अकेला.....!



एक सूनापन है उसके बिना मेरी जिंदगी में।
काश वो लौट आती किसी को छोड़कर मेरी जिंदगी में।

अगर वो लौट आती तो आज न होता मैं इस मयखाने में।
आज तू नहीं तभी तो ढूंढ़ता हूं, मैं तुझे उस बेजुबां निशानी में।

पीने के बाद भूलना चाहता हूं, मैं उसको, फिर भी रहती है वो मेरी यादों में।
य़ाद आती है, वो दिन, जब गहरी दोस्ती थी, हम दोनों में।

जीने मरने की कसमें खाते थे, हम दोनों जाकर मंदिर-मस्जिदों में।
कभी मांगा करती थी, वो मुझे अपने मन्नतों में।

आज वो नहीं मैं हूं अधूरा, ऐ खुदा मैं भी नही रहूंगा अकेला,
तेरे इस जन्नत में।


-----रजनीश कुमार

खुदा के नाम जिंदगी…...


खुदा के नाम जिंदगी…...!



जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, तो मेरे आंसुओं ने मेरे पलकों का साथ छोड़ दिया।
जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, तो मेरी मुस्कुराहट ने मेरे लबों का साथ छोड़ दिया।
जब से तूने मेरा साथ छोड़ा, एक-एक करके सारी खुशियों ने मेरा साथ छोड़ दिया।
एक दिन मैंने अपनी यादों को, अपने दिल में दफन कर दिया।
तेरे जाने के बाद मैंने अपनी जिंदगी मयखानों के नाम कर दी।
तेरे जाने के बाद मैंने हर शाम, उस बेजुबां निशानी के नाम कर दी।

बहुत पीने के बाद अब मैंने अपनी जिंदगी को हकीमों और फकीरों के नाम कर दिया।
फिर भी सुकून नहीं मिला तो अब, अपनी जिंदगी मैनें खुदा के नाम कर दिया।


-----रजनीश कुमार

बदला गया......?


बदला गया......?



रिश्ते बदलते देर नहीं लगी, मगर चेहरा वही था।
रास्ते बदलते देर नहीं लगी, मगर मंजिल वही था।

मुश्किलें बदलते देर नहीं लगी, मगर हालात वही था।
ख्वाब बदलते देर नहीं लगी, मगर नींद वही था।

क्या कभी सोचा है हमने-आपने इस बारें में,
आज वक्त बदल गया, मगर सोचने का तरीका वही है।

अंजाम बदल गया, मगर अपना मकाम वही है।
हर कोई बदल गया, मगर अपना गुरूर नहीं बदला।

आज मंदिर-मस्जिद बदल गया, मगर भगवान नहीं बदला।
सब कुछ बदलते नहीं लगी, मगर आज भी समय नहीं बदला।


------रजनीश कुमार




खामोश दिल


खामोश दिल



उसकी यादों में हर पल जिया करते थे हम,
उनकी सलामती की दुआ मांगा करते थे हम।
आज वो नहीं है फिर भी वो लम्हा याद आती है,
जब उसके कूचे से बेआबरू होकर निकला करते थे हम।
वो हमें देखकर कर पलट जाया करती थी,
फिर भी खामोश दिल को तसल्ली दिया करते थे हम।

हर कोई बताता था उसकी बेवफाई की कहानी,
फिर भी उसकी यादों में खोए-खोए से रहते थे हम।
किसी की बातें नहीं सुनता एक समय रह गया मैं अकेला,
फिर भी उसकी यादों की गहराई में डूबे थे हम।

दुनिया की भीड़ में रह गया था मैं अब अकेला,फिर भी उसकी चाहत में जिए जा रहे थे हम।



--------रजनीश कुमार 'बाबा'

Sunday, October 5, 2008

तुम होती तो...ये जाम न होता..


तुम होती तो...ये जाम न होता...



कभी कभी दिखती थी वो मुझे शामों में
मैं तो खोया रहता था उसकी यादों के जामों में।
कर नहीं पाता अपने मासूम मुहब्बत का इजहार इन फसानों में,
हर पल दिखती है उसकी तस्वीर इन जमानों में।
आवाज है जख्मी फिर भी गाता हूं उसे अपने गानों में,
तकदीर की लकीरों को ढूंढता हूं अपने हाथों में,
दर-दर भटकता हूं तेरे प्यार में,
फिर भी दर्द न होता इन पांवों में।
अगर तू साथ होती तो आज न होता मैं इस मयखानें में।
अगर तू साथ होती तो आज न होता ये जाम मेरे हाथों में।

------रजनीश कुमार


Saturday, October 4, 2008

दाखिला लेने की चाहत




दाखिला लेने की चाहत



याद है मुझे कॉलेज के बाद का वो दिन,
आगे की पढ़ाई जारी ऱखने का टेंशन।
हर कोई दाखिला ले रहा था एम.ए. और एम.बी.ए. में,
मुझे तो दाखिला चाहिए था सिर्फ पत्रकारिता में।
हर कॉलेज, हर विश्व विघालय का चक्कर लगाता था मैं,
वो दिल्ली में गर्मी का दिन जून के महीने में,
वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदने के लिए लगती थी लंबी कतार,
मगर मजबूत किस्म के लड़को की नहीं होती थी कोई कतार।
आखिर किसी तरह नंबर आता फार्म खरीदने के लिए पैसे बढ़ाता,
काउंटर वाला भी खुदरे पैसे के लिए सभी को तड़पाता।
पर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदकर पेड़ों के नीचे बैठता था मैं,
मगर हवा के गर्म थपेड़ों से घबराता था मैं।
वो गर्म हवा हमें एहसास दिलाती थी, अपने काबिलियत की,
वो गर्म हवा की चुभन से सिहर उठता था मैं।
सोचता था कितनी मुश्किलें हैं हमारी जिंदगी में।
मगर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।
फार्म खरीदकर घर जाने के लिए बस पकड़ता था,
खिड़की के पास खाली सीट देखकर जल्दी से बैठता था।
जब बस चलती फिर वही गर्म हवा चेहरे से टकराती,
फिर वही मजबूरियां हमें याद आती ।
मगर वो दाखिला लेने की चाहत मजबूत बनाती थी मुझे।


-----रजनीश कुमार

Thursday, October 2, 2008

क्यों ?


क्यों ?

हम है, आज हैं, कल नहीं होंगे,
क्या है, क्यों है, पता नहीं कब होंगे ?
मौत एक अंधेरा है, जिंदगी सवेरा है,
फिर भी जिंदगी साथ क्यों नहीं देती।
एक मौत है पता नहीं साथ क्यों नहीं छोड़ती?
एक जिंदगी है जो हमेशा दगा दे जाती है,
फिर भी मनुष्य को जीने की चाहत क्यों हो जाती है?
मौत कभी बेवफा नहीं होती,हमेशा समय पे ही आती है,
फिर भी मनुष्य न जाने मौत से क्यों घबराता है?

-------रजनीश कुमार

रिश्ते की डोर


रिश्ते की डोर

रिश्ते की डोर टूटने लगी थी,
एक हाथ से थामा मैंने,
फिर भी रिश्ते की डोर छूटने लगी थी।
उसने थामा, मैंने थामा,
फिर भी रिश्ते की डोर छूटने लगी थी।
वक्त ने समझाया,आइने ने दिखाया,
फिर भी हकीकत से नाता टूटने लगी थी।
बहुत गिरगिराया,बहुत रोका मैंने उसको
फिर भी वो मुझसे दूर जाने लगी थी।
बेवफाई कर गई वो मुझसे दिल नहीं माना,
फिर भी उससे मेरा नाता टूटने लगा था।
लाख कोशिश की मैंने,हुआ मैं प्यार में असफल,
मैं भी उससे नाता तोड़ने की सोचने लगा था।

-----रजनीश कुमार

Wednesday, October 1, 2008

सोचता रहा मैं....


सोचता रहा मैं....


क्यों सताती रही वो, मुझे मेरी यादों में।
मैं तो नहीं सताता उसको उसकी यादों में।
एक अजीब सी कशिश सी थी उसकी बातों में।
जब वो मुड़कर देखती थी तो घबराता था मैं।
फिर भी न जाने क्यों, उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
जब वो लहराती थी हवा में अपना दुपट्टा,
एक आह सा भर के रह जाता था मैं।
अपने दिल की बात बताने से डरता था मैं,
फिर भी उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
अपने दिल की बात दिल में दबाकर रखना सीख गया था मैं।
जब वो बातें करती थी, तो देखता था उसे एक झलक हर कोई,
लेकिन उसकी निगाहों से निगाहें मिलाने से बचता था कोई।
मेरे दिल की बैचेनी, उसे एहसास करा गई मेरे प्यार की,
बैचेनी से भरी वो भी, मेरे पास आकर कह गई,
“मेरी जिंदगी है किसी और की”।
प्यार में टूटकर मैं खाक छानता रहा मयखानों की,
अंत में याद आ गई मुझे वही नरम हाथों वाली बेजुबां निशानी की।

---रजनीश कुमार

एक मोती



एक मोती


एक मोती ,उसके दिल के पास उसकी धड़कनों को सुनता हुआ।
एक मोती, उसके कान के पास उसकी जुल्फों को छेड़ता हुआ।
वो खुशनसीब मोती मुझे देखकर हंसता रहा।
मैं चिढ़ता रहा उस मोती पर , पर कुछ न कर सका।
काश मैं वो मोती होता, उसकी धड़कनों को सुनता ।
काश मैं वो मोती होता , उसकी जुल्फों को छेड़ता।
मगर मैं बदनसीब वो मोती मुझसे अनजान थी।
मेरे नज़र के सामने पर वो गुमनाम थी।


----रजनीश कुमार