Sunday, October 19, 2008

मैं निजामों के शहर में था..मैं मुगलों के शहर में हूं...






मैं निजामों के शहर में था.......अब मैं मुगलों के शहर में हूं...







एक धुंध सा भरा सवेरा मैनें, निजामों से शहर में देखा
एक दूसरा सवेरा मैंने मुगलों के शहर में देखा।
याद आती है वो पल जिसे मैंने गुजारा था निजामों के शहर में,
जहां हर दीवारों के जर्रों में एक झलक थी दीवानों की
एक ऐसा शहर जहां मोती खुद को ही पिरोते हुए नज़र आती थी।
जिसकी बिरयानी खुद की स्वादों को चखने के लिए हरपल भूखी नजर आती थी।
जिसके सागर की लहरों में, खुद की उफान को देखने की तमन्ना लिए, पलकें बिछाए रहती थी।
जिसकी फिज़ाओं में दिखती है एक इतिहास के पन्नौं की जैसी कहानी ।
रात होती तो जगते जुगनुओं के समान होती इंसानी जिंदगी
जिसको जीने की तमन्ना लिए आज भी उगते सूरज की ओर देखता हूं मैं।
जब से मैंने छोड़ा निजामों के शहरों को
एक बूंद गिरी मेरी आंखों से, वो आंसू जो आज भी मुझे याद है
जिसे मैने देखा और वो बूढ़ी आंखों ने देखा।
जो मेरे सामने मूक बनकर, मुझे उन्ही आंखो से घूर रहा था।

आज मैं मुगलों के शहर में एक अनजाना परिंदा बनकर घूम रहा हूं
न तो तुम मुझे जानते हो न वो तारें जो मुझे दिलासा दिलाते हैं अपनी काबिलियत की।
दौड़ती जिंदगी के जैसा इस शहर में, हर कोई दिखता है अनजाना
जहां दूसरों से पूछता है, हर कोई अपना ठिकाना।
लोगों को डर है कि इस चलती भीड़ मे गुम न हो जाए..
इसी गुमनामी से डर मैं किनारे पर बैठकर देखता हूं इस भागती भीड़ को।
कितना मुश्किल है इन्सानों की जिंदगी में,
हर कोई सोच कर इसे भूलने की फिराक में रहता है।
अगर कुछ न मिला तो, खुद को ही ढ़ूढ़ने की तलाश में रहता है।
हर कदम पर मिलती मुश्किलों को नकारता जा रहा हूं,
हर बार यही सोच कर चलता जा रहा हूं मैं,
कि निज़ामों के शहर को तो मैं भूल नहीं पाया,
लेकिन मुगलों के शहर में मैं खुद को ही ढ़ूंढ नहीं पाया।
---------------रजनीश कुमार

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