Wednesday, October 1, 2008

सोचता रहा मैं....


सोचता रहा मैं....


क्यों सताती रही वो, मुझे मेरी यादों में।
मैं तो नहीं सताता उसको उसकी यादों में।
एक अजीब सी कशिश सी थी उसकी बातों में।
जब वो मुड़कर देखती थी तो घबराता था मैं।
फिर भी न जाने क्यों, उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
जब वो लहराती थी हवा में अपना दुपट्टा,
एक आह सा भर के रह जाता था मैं।
अपने दिल की बात बताने से डरता था मैं,
फिर भी उससे दिल लगाने की सोचता था मैं।
अपने दिल की बात दिल में दबाकर रखना सीख गया था मैं।
जब वो बातें करती थी, तो देखता था उसे एक झलक हर कोई,
लेकिन उसकी निगाहों से निगाहें मिलाने से बचता था कोई।
मेरे दिल की बैचेनी, उसे एहसास करा गई मेरे प्यार की,
बैचेनी से भरी वो भी, मेरे पास आकर कह गई,
“मेरी जिंदगी है किसी और की”।
प्यार में टूटकर मैं खाक छानता रहा मयखानों की,
अंत में याद आ गई मुझे वही नरम हाथों वाली बेजुबां निशानी की।

---रजनीश कुमार

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