Friday, February 24, 2017

।।खुदा के साथ मैं खड़ा।।


राहें हुई जुदा
मयस्सर बनके खुदा
खोज लेंगे खुद को कहीं नहीं 
तन्नहाइयों तले खुदा के भीतर वहीं।।
सोचा इश्क़ का पयाम होगा दोगुना
रात कटी बिस्तर पर जैसे चाँद चौगुना ।
खुली होगी आँखें, हुआ होगा भोर का सवेरा
थोड़ी आवाज़ आई कानों में, सो जाओ बचा है अंधेरा।।
सपनों की गश्त पर फिर निकला जो हौले सा हुआ था इशारा
ढूंढने में ख़ूब लगा वक्त, मिली कड़ियां ऐसे, जैसे बना मैं बेचारा !
मुर्ग़े की बांग से डरकर, ख़ूब दौड़ा ख़्वाबों में, क्योंकि वक्त का था जो पहरा
छूट रही थी सांसे , ज़ेहन के जज़्बातों में , क्योंकि दिल का राज जो था गहरा।
आँखें खुली शर्त लगाई मैंनें हवाओं से दोनों हाथ फैलाकर
सन्न सी करती आई हवाएँ, क़ब्र के कोनों से गिरगिराकर
पांव में बन बेड़ियां, मेरी रूह को रोकने की कोशिश की वो भरपूर चाहकर
खुदा के साथ पाया मुझे खड़ा, ख़ाली हाथ लौट गया वो आख़िर हारकर।।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 

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