Monday, April 3, 2017

।।प्रेम या पहेली।।

Rajnish Baba Mehta Director

ज़िंदगी की हकीकत को आज पहेली बनते देखा
हंसते आंखों के कोनों में काजलों के साथ आंसूंओं को देखा
कठोर सी लगने वाली सांसों को मोम सा पिघलते देखा 
लाजवंती सी लाल उसको, कृष्ण की राधा बनते देखा ।।
परदों में आई पहली बार, बोला साज को साज ही रहने दो
सिलते लफ्ज होते तो कहता राज को राज ही रहने दो
आंसूओं में आए अल्फ़ाज, चीख चीख कहते रहे, मेरा दर्द तो मुझे कहने दो
गमनीयत के माहौल में ,मेरे कान भी बोल पड़े, कुछ अल्फाज मुझे भी तो कहने दो।।
हुई बेपर्दा वो आईने की तक्सीद में नहीं ,मेरे पहलूओं में बार बार
लकी थी वो, जो चांद के सामने, दर्द को लेकर रोई हर-बार
जिस्म था पराया, डर का था साया , फिर भी अत्फ़ पहुंचाया कई-बार
लगी अदालत सोच की सड़क पर, टूट कर बिखर जाती सरेआम वो हर-बार।।
झूठ का पूलिंदा लिए जो चली थी, सच के चौराहे पर वो पहली बार
आंसूओं में बह गया वो रकीब, जो दर्द दिया था उसे आखिरी बार
प्रेम बनकर जो आई ,थी वो ज़हीर किसी की, पहेली बनकर चली गई ,
कुछ अल्फाज मेरी झोली में छोड़, इस क़ातिब के किस्सों में समा गई।।
शब्दों की लकीरों से तूझे तराश लूंगा पीले पन्नों पर एक रोज़
बस एक बार और मिलना काजलों में सने आंसूंओं के साथ किसी रोज
ख़जालत छोड़ ख़त लिखना तूम ,आउंगा उसी चौराहे पर जहां मिली थी हर रोज
तेरी-मेरी कहानी की आखिरी पन्ने को पढ़, स्याही सी अश्क से लिखूंगा एक रोज।।
पता है कभी ढूंढ ना पाउंगा तेरी छुअन, प्रेम थी या पहेली उस रोज।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता 
।।तक्सीद -खोज।।अत्फ़ -प्रेम।।ज़हीर -मित्र,साथी।।क़ातिब -लेखक।।ख़जालत- लज्जा।।

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