Wednesday, June 14, 2017

।।खुद ही खुद सोचो।।



खुद को मरते देखा कभी ? आज देखा
खुद को मरते भी देखा, औऱ जिस्म को गिरते भी देखा 
वो शोर भरी सन्नाटों में रातों को रात-रात भर रोते देखा
मरघट की बल्लियों को चिताओं पर सुस्ताते हुए भी देखा 
बस जिंदगी की भीड़ में जिंदगी को जीते, आज-तक ना देखा ।।

सोच को पालने में कभी पलते तो कभी गिरते-प़डते देखा , भूल गए तुम 
खुद के बचपन को इस यौवन में बिखरते देखा, और बुढ़ापे को संवरते देखा
गम्माज़ों को गले लगकर तुम, अपनों से दूर होते, खुद को कई बार क्यों देखा 
क्या फिक्र नहीं थी आंचल की, या फक्र था उस दो पल के सुहाने लम्हों पर 
हश्र तेरा भी वैसा ही होगा,जैसे तपती दोपहरी में सूरज को धूप के लिए तरसते देखा।।

ये वक्त कैसा है ? ख़लिश की बाहों में लड़ते-लड़ते तुम्हारी मौत को खुदा भी ना देखा 
वो जश्न कैसा था?जिसे जीते-जीते,तुमने खुद के साथ-साथ,जिंदगी को भी ना देखा।
काश लौट आते तुम, उस मरघट तले से, जहां जिस्म खुद को मरते देखा करते हैं  
काश उठाकर देख लेते आंचल तुम, जहां तुम्हारी फिक्र में कोई रात-रात भऱ रोया करते हैं ।। 

गम्माज़- चुगलीबाज।।ख़लिश-पीड़ा।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


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