Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta |
ये सर ना जाने क्यों झुक-सा गया है,
चलती राहों पर क्यों रूक-सा गया है ?
गुरूर गर्व था मगर बेबसी बातों में क्यों थी,
सवाल दूसरों से नहीं बस खुद औऱ खुदा से पूछता हूं,
तेज दौड़ तो रहा हूं ,फिर भी ना जाने ये सर क्यों झुक-सा गया है ?
लहू का रंग एक, जिस्म की बनावट एक,
मातृभूमि की शीष पर जन्म औऱ मरण एक,
भूख एक, निवाला एक, ज़ुबान एक, आवाज एक,
धरती एक, आसमान एक, इबादत एक, आदत एक,
फिर भी चलती राहों पर मेरी निगाहें क्यों झुक सा गया है ?
सवालों की फेहरिस्त लिए चल तो रहा हूं
लेकिन हौसला क्यों रूक-सा गया है ?
अरसे बाद वक्त ने बेवक्त आवाज दी
चारों दिशाओं ने अपनी-अपनी परवाह दी
गगन गूंज कर भरी भीड़ में हिदायत भी दी
अल्लाह ने बिन मांगे कौम को कयामत भी दी
फिर भी लाल लफ्ज़ के आगे क्यों झुक-सा गया हूं ?
बिन मांगे मिली मौत, अब हर पल का तोहफा क्यों नज़र आने लगी है,
एक ही धागों से बुनते कपड़े, लेकिन मेरी पहचान क्यों लिबासी होने लगी है ?
मुझको लूटते देख ऐ पौरूष, तेरे अंदर वही पुराना शैतान क्यों पलने लगा है,
ये कैसी मोहब्बत-भरी-दुश्मनी है, जो सारे ज़माने को अंधी आंखों से नज़र आने लगी है।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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