Writer & Director कहानीबाज Rajnish BaBa Mehta |
मुलाक़ात करना है तो मातम का इंतज़ार क्यों,
आ जाओ कभी गैरत-ए-गाह में फिर सोचना क्यों।।
कभी राह-ए-तमन्ना पर होगी तेरी-मेरी रवानगी
फैसला आखिरी, जब केसरिया का लिया
तो फिर गोशे वाली कब्र के धुएं की फ़िक्र क्यों ।।
अब तो आंधी ने ख्वाबों की आखिरी आशियां भी उड़ा दिए
मोहब्बत वाली मर्सिया सुनकर जलते चरागों ने खुद को बुझा लिए।।
बेमान बेबस बनकर नाउम्मीदी का कफ़न अब तो सरेआम यूं ही बिछा दिए
चले जो तुम दीवारों की कगारों पर,नजरें क्या मिली तुम यूं ही मुस्कुरा दिए।।
विरह की वार तले जूलियट समझ सारे शहर में तुम्हारे बुत यूं ही बना दिए
उस रात परवाने से मिलने आई, तो सारे शहर ने अपने-अपने ज़ख्म दिखा दिए।।
लफ़्फाजी की ऐसी जालसाजी थी, मानों फिर नई बेवफाई की कोई साज़िश थी
ईश्क में ज़िदा होने का डर लिए,मैंने तो अपनी कब्र अपने हाथों से जला दिए।।
अब तक मौत के बाद भी ख़ुद को आज़ाद करने की फ़िराक़ में हूं
उस अंधेरी राह-ए-सफ़र पर ख़ुद को तराशने की फ़िराक़ में हूं।
अब भी ना जाने क्यों आख़िरी सच की तलाश में थोड़ा उलझा हूं
थोड़ी दूर जो मिलेगी शमां उसे अभी से जलाने की फ़िराक़ में हूं।
तेरी इश्क्यारी वाली बातें याद है, कि इबादत की आवाज़ नहीं होती,
वो करवटों तले तुमने ही सिखाया था, कि खुदा की कोई साज नहीं होती।
समेट कर अल्फ़ाज खुद को खुद की ज़ुबान में सोचूंगा,
क्योंकि सब कहते हैं लफ्ज़ कभी बेज़ुबान नहीं होती।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
No comments:
Post a Comment