Writer & Director Rajnish BaBa Mehta |
शिखर से बूटियां बटोरता हिमालय की तराई में सोता, आज वो नंगा साधु शिथिल था
मानव श्रृंगार से बेखबर यथार्थ के पटल पर बंद आंखें किए, आज वो थोड़ा जटिल था।।
एकांत की भीड़ से निकलकर , शोर में सन्नाटे लिए छोड़ अपनी तप वो, क्यूं बेसुध पड़ा
लालिमा वाली भोर तले, सारी आसक्तियों को छोड़ पांवो तले, वो जीवन पर क्यूं अड़ा।।
किशोर भरी उम्र लिए सारे भोग से भागकर ,हसीन लम्हों को नापकर जो भेष जोग का पहन लिए
सामने वाली परवाह ना थी,उम्मीदों वाली गवाह ना थी, बस तपते तलवे लिए,जो नंगे पांव चल दिए ।।
सन्यास के सफर पर त्याग भरे वैराग्य की साधना में ,अब हर सफर सोच की, एकांत में होगी
मन के भंवर के पार खड़ा, हर सौभाग्य की भावना में, अब तृष्णा वस्तु की, अंत में भी ना होगी।
मोह की माया से परे ,जन्मजननी को छोड़ खड़े, अब वैराग्य के सफऱ पर एक नया जीवन-सुर बनाना है
जन्म -मृत्यु का चक्र छोड़ ,हठ योगी बन सुर सारंगी लिए ,अब वो गेरूआ वाला अंगवस्त्र ही अपनाना है ।।
गुजर गई सारी बातें, बीत गई बरसों रातें , सो गई कईयों की सांसे, लौट रहा हूं कुछ अंत का अनंत लिए
माघ वाली महादिशा की ओर, बदल रहा है उर्जा का प्रवाह हर ओर, चल रहा हूं सोच में अब भी वही संत लिए।।
फिक्र का जिक्र है थक सा गया सफर सोच का, थक सी गई है वो हिमालय वाली कांपती बूढ़ी टांगे
लौट रहा बेफिक्र ख्याल मन का, वैराग्य हुआ पराया, मोह का बचा ना माया, फिर भी ये मन क्यूं तन ही मांगे ।।
सवालों की उलझनों में सिमटा हूं, बंद आंखें लिए अब ना जाने क्यूं सामाजिक सोच में लिपटा हूं
तोड़ पाउंगा उन जंजीरों को उंगलियों से, हर जवाब की ताक में अब तो अंधेरों से ही सिमटा हूं।।
दुनिया देख रही अंत के अनंत को ,फिर भी
शिखर से बूटियां बटोरता हिमालय की तराई में सोता, आज वो नंगा साधु शिथिल था
मानव श्रृंगार से बेखबर यथार्थ के पटल पर बंद आंखें किए, आज वो थोड़ा जटिल था।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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