शाम-ए-भोर वाली साख पर सिमट गया उसकी लिहाफ़ पर
जुगनुओं सी जागती आ गई, अफ़सानों की पहली फ़िराक पर
बदन की अंगड़ाइयों तले इठलाते रहे, दोनों अपनी काली लिबास पर
पहली मुलाकात थी बंबईया नुक्कड़ पर, वो भी कबाब की आस पर।।
वक्त का था पहरा, मेरी जुबां ना जाने किस आस में, उस पर ही था ठहरा
उलझती जुल्फों तले, वो इज़्तिराब-सी थी, या था कोई साजिश गहरा
मखमली सफ्फ़ाक सा बदन लिए,गुलाबी होठों पर क्या खूब सज रहा था चेहरा
लफ्ज़ों की जुगलबंदी जिस्म में क्या पेवस्त हुई, बोल पड़ी वक्त का है थोड़ा पहरा।।
गर्दिशे-अफ़लाक की फिक्र में,छोड़ आया उसे उसकी काफ़िलों की जिक्र में
कहती रही, राहें जुदा होती रही,बोल गई लब से मिलूंगी आखिरी सब्र में
लम्हों को गिनती थी लफ्जों पर, कारवां को कारवां ना बताती वक्त़े-सफ़र में
अल्हड़ सी अदायगी लिए,अगर आज नहीं मिली तो कहती मिलूंगी आखिरी कब्र में ।।
विदा सी ज़ुदा हुई, नज़्मों की अलाप वो जोगन जैसे ज़ेहन में आ गई
रागिनी गाती हुई, वो इस अफ़सानानिगार के मल्हारी सांसों में समा गई
पिछली भोर वाली शाम की सितार, मेरी रगों में कतरा कतरा टूटती चली गई
देख रहा हूं अब भी अंधेरी कासनी स्याह रातों में, कैसे जिस्म में खोती चली गई।
वो एक पहली औऱ आखिरी मुलाकात,उसके लिए ना जाने, क्या होगी शादमानी
हयाते-चंद-रोज़ा समझ इस कातिब के लिए,वो बस इतनी सी है अधूरी कहानी।।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
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।।इज़्तिराब-सी- बैचेन सी।।गर्दिशे-अफ़लाक - काल चक्र।।शादमानी -हर्ष।।हयाते-चंद-रोज़ा- चार दिन की कहानी।
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