सफर कुछ ऐसा ही होता है
सामने सीढ़ीनुमा रास्ता होता है
दूर बंद दरवाजे जैसी मंजिल होती है
पैरों तले ख्वाहिश जैसा, कुछ कांटा भी होता है ।
एहसास जेहन में नहीं जोश में होता है
ख्वाब सामने मगर कुछ बेहोश सा होता है
पा लेने की ज़िद ,खुद को जिंदा रखता है
खो जाने पर हर लम्हा,मौत सा दिखता है ।
फिर से उठने पर मन ना जानें, क्यूं घबरा जाता है
सोच में सिहरन तो देह बात-बात पर, यूं ही कांप जाता है
कामयाब कोशिश का फितूर,फिर भी ना जाने क्यों होता है
आखिर मौत की बात सुनकर मन एकबारगी क्यूं घबरा जाता है ।
फिर से उठा हूं इस बार भी सफर कुछ वैसा ही होगा
सामने सीढ़ीनुमा रास्ता भी होगा,तो दूर बंद दरवाजे जैसी मंजिल भी होगी
पैरों तले ख्वाहिश भी होगा, जमीन पर बिछा कुछ नुकीला कांटा भी होगा
लेकिन इस बार जश्न जीत की होगी,रोशनी आएगी तो मौत सिर्फ शरीर की होगी।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
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