POET, WRITER & DIRECTOR RAJNISH BABA MEHTA |
अपनी मशरूफ़ियत में मगरूरर थे, मगर जनाज़े से पहले जिंदा जिस्म लिए मजबूर क्यों
हुनर हौसलों की उड़ान पर गुरूर में थे, मगर शाम वाली रात से पहले मजबूर क्यों ।।
संवेदनाओँ वाली लहू आंखों में लाल से थे, मगर आंसू से पहले काजल मजबूर क्यों,
रंजिश ज़ेहन में, जागती जिस्म को जगाते थे , मगर ज़ुबान आज खुद से मजबूर क्यों ।।
गुजरते वक्त को ज़ेहन में झंझोर सा दिया, आज़िम आदत मानो मेरी हंसी पर रो सा दिया
वक्त के पैमाने में खुद को बंद कर बैठा हूं, वो जवानी मानो मेरी मजबूरी पर रो सा दिया ।।
खुदगर्ज़ी की खोज में ख्वाहिश ख़ाक सा कर दिया, झूठे लिबासों में जिस्म आज रो सा दिया
बांध कर बेड़ियों में चेहरा सियाह ज़र्द सा कर दिया, भरी महफ़िल में हालात हुस्न पर रो सा दिया।।
गोशे में बैठा हूं गिला गुलशन से नहीं, आक़िबत की फिराक में अर्जमन्द आक़िल से कहता हूं
लम्हों की है थोड़ी आजमाईश ,अब तुझसे नहीं, बादलों में बसी आफ़ताब की रोशनी से डरता हूं।।
ये जो वक्त तेरा है, वो वक्त जो मेरा नहीं , सामने खड़े ज़फर से अब गुज़ारिश नहीं तल्ख़ कहता हूं
मर्यादा मान की होगी, सम्मान मेरे अभिमान की होगी, ज़ुबान अगर जली तो जिस्म राख सी होगी
आखिरी लफ़्जों की बारिश है, सफर मर्ज़ी का आवारामिज़ाजी है,अब ये बात तुझसे नहीं फरिश्तों से कहता हूं ।।
अबस अपनी मशरूफ़ियत फिर मगरूर होगी, जो ज़िंदा जिस्म जनाज़े से पहले मजबूर ना होगी
हुनर हौसलों की उड़ान पर गुरूर होगी, जो शाम वाली रात से पहले मजबूर ना होगी।।
रूख हवाओं का होगा जिधर हम होंगे , जो महफिलों में अब हुस्न मजबूर ना होगी
नसीब मुसाफिर का , अब मुझसा होगा, जो ज़ुबान अब कभी खुद से मजबूर ना होगी ।।
कातिब &कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
आज़िम= दृढ़ ।। गोशा - कोना।।गिला= रोष, शिकायत।।गुलशन= फूलों या गुलाबों का उपवन।।आक़िबत= अन्त,भविष्य।।अर्जमन्द= महान।।आक़िल-बुद्धिमान।।आफ़ताब= सूर्य ।।जफ़र= विजय, जीत, लाभ।।
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