Writer, Poet, Director Rajnish BaBa Mehta |
तारीख़ों की तफ्तीश में अब उमर आग सी लगती है,
जश्न कभी ज़िंदगी,इश्क की तलाश में, अब फाग सी लगती है ।
ख़्वाहिश खोखली हुई हर गोशे में, क़दमों तले रास्ते लाल सी लगती है,
ख़्यालों की सतरंगी धुन है, मगर वो पाज़ेब की धुन अब भी राग सी लगती है ।।
शिकायत शिकवों से नहीं, शिकायत लम्हों से नहीं,
हर पन्नों पर बिखरे लफ़्ज़ों जैसी, शिकायत सांस सी लगती है।
जो मिला है हसरतों से हसरतों में, अब उनसे गुजारिश नहीं होती,
बीते आइनों की शक्लें धुंधली सी है, आज भी वो मेरे जिस्म में जिस्म सी लगती है।।
वक्त की आड़ में सफ़र सोच सी नहीं, एक उमर सी लगती है,
किसी का बेहद-बेपनाह अकेलापन, वो आखिरी मोहब्बत सी लगती है ।
जो खो गया वो वक्त की तफ्तीश सी थी, मगर मलाल दिल में ज़हर सी लगती है,
गुजरे वक्त में भी पाने की तमन्ना तो है, लेकिन बालों को देख,जिंदगी एक उमर सी लगती है ।
सफर पीछे का है जनाब , अब बढ़ते कदम अफ़सानों सी क्यों लगती है,
फिर से जवां होने की खातिर, उस आने वाली बुढ़ापों से डर क्यों लगती है ।।
हर वक्त के पहर दर पहर में , अबस मौत की सोच कुछ इस कदर लगती है,
अफ़सोस इश्क को पाने की नहीं , अब अफ़सोस ढ़लती उमर की ही लगती है।।
कातिब, कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
No comments:
Post a Comment