Writer, Director, Poet Rajnish BaBa Mehta |
लहजों में लिपटी, सांसों में सिमटी छोटी सी तस्वीर थी
गलियों के मुहाने पर खड़ी, ना जाने किसकी तकदीर थी ।।
लफ्ज लाल लिए होठों पर ,किसी के इश्क का इज़हार थी
घूंघट में बैठी बंद दरवाजों पर, ना जाने किसका इश्तहार थी ।।
दस्ते-हिनाई की तराशों तले, तन्हाई में भी वफाई की मीनार थी
रोक ली दबती आहों के तले सांसें, ना जाने आज क्यूं बीमार थी ।।
सख्त पत्थर सा लिए बदन,खुद के लिए, खुद ही वो एक विचार थी
बेलिबास कोनों में सिमटी सिसकती ,ना जाने आज क्यूं लाचार थी ।।
यादों की स्याही तले खोली है आंखें, लेकिन मुझसे अब भी वो तकरार थी
बिखेर दी अपनी जिस्म की कहानी,ना जाने क्यूं आज वो भरे बाजार की अखबार थी ।।
सच्ची साज पर नंगे पांव चलकर , मुमताज सी ताजमहल बनने को बेकरार थी
अंधेरी कासनी रातों में नंगी रूह लिए,अब ना जाने क्यूं मेरी कब्र में भी समाने को तैयार थी ।।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
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