POET, DIRECTOR RAJNISH BABA MEHTA |
सिलते लफ़्ज़ों की है, अकेली ख़्वाहिश वाली ख़ामोश ख़ुदाई
बनते ज़ख़्म नासूर है, जो देखा, तेरी अश्कों के शीशों में दस्ते-हिनाई
सजे पैरहन तराशे बदन पर लिए, नंगे पांव जो तू सामने इठलाई
रूठी होठों औऱ झुकती पलकों पर, ना जाने क्यों ना आई रूसवाई
ज़ंजीरे-दर में जकड़ा हूं, सन्नाटों की शोर में बैठा हूं, लेकिन शिकन माथे ना आई
महफ़िल-ए-रात की रोती सन्नाटों पर, अब क्यों बेबसी सी है छाई ।।
फ़जर की फिक्र में बैठा हूं, जो तेरी रूख़सती का वक्त आएगा
ठहर कर सूरज भी तेरे कदमों तले, धूप सी हल्की आह ना भर पाएगा
बेगानेपन की तस्वीर लिए, वो कहार भी मोम सा यूं हीं पिघल जाएगा
कल तक साथ चलने वाला हमसफर, पिछली गलियों में ग़ुम जाएगा
रोज की तरह हर-रोज, तेरा वक्त खुद-ब-खुद ख्वाहिश सी निकल आएगा
उस रोज बेलिहाज़ होकर, ये शख्स तेरी आगोश में फिर से सिमट जाएगा।।
पराए वक्त में जो मैंने तुझको पा लिया, क़ल्ब से मैं खुद ही ख़ुदा हो गया
खामोंश लम्हा यूं ही बोलता गया,धीरे-धीरे मैं तेरे जिस्म से यू हीं ज़ुदा हो गया
अबस फितरत-ए-फांस में, जो तेरा रंग परिंदा सा फक़ीरियत हो जाएगा
उंगलियों पर गिनते लम्हों के बाद,अब कयामत के रोज ही मुलाकात हो पाएगा।।
तब ना सूरत-ए-साज का ज़िक्र होगा, ना तेरी ख़ामोश रूख़सती का फ़िक्र होगा
क्योंकि बेलिबास रूह के दरवाजों पर, सिर्फ ज़िंदा ईश्क-ए-फ़साना सुनाया जाएगा।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
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।।दस्ते-हिनाई-मेंहदी वाले हाथ।। पैरहन- वस्त्र ।। ज़ंजीरे-दर- दरवाज़े कि साँकल।।क़ल्ब= मन,आत्मा।।
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