Writer,Director Rajnish Baba Mehta |
मैं जहां होता हूं, वहां रहता नहीं
जहां रहता हूं, वहां होता नहीं
ये मस्तक की कैसी है दस्तक
ढूंढ़ रहा हूं समझने की कोई पुस्तक।।
सोचता हूं , तो खुद में समेट नहीं पाता
समेटता हूं , तो उसे खुद में सोच नहीं पाता
क्या, ये ख़लिश भी, खिलाफ है जलाल-ए- ख्वाहिश की
या ग़ुजीदा गुनाह है, या फिर, इम्तिहान है मेरी आजमाईश की।।
ज़मीर गिरवी रख तेरी मिट्टी पर, ज़ामिन बनकर जो आया
ज़ियारत कर रहा कलम के दम पर, मगर ये ज़र्ब कैसे निकल आया
एहसास-ए-ज़लाल का फ़िक्र-ए-ज़िक्र हुआ जब, तो दुनिया ज़ार-ज़ार हो गई
नादीदा नाफ़हम जो अब तक था, वो नाफ़र्मान की नब़्ज भी अब गुलज़ार हो गई।।
अब तक जो हुआ, लगता था, ज़ज्बा बेलगाम हुआ शायद
मैं जहां रहता था, जहां होता था, लगता है वहां इश्क का इंतजाम था शायद
मेरे होश में आने की खबर नहीं उसे, लगता है मयखानों में पैगाम नहीं मिला शायद
सांसों की गिरह बांध,समेट लिया खुद मैंने,लगता है उसे मेरी उड़ान अंदाजा नहीं शायद।।
अब मैं, जहां भी होउंगा,गम़्माज़ों के शहर से, मुझ-तक कोई रास्ता ना होगा
समेट कर सोच को, बिखेर दिया शब्दों में, लेकिन तेरा-मेरा कोई वास्ता ना होगा ।
सारंगी लिए साधुओं की महफ़िल में मिलेंगे कभी,उस वक्त मेरा साज सस्ता ना होगा
बंद कर लेना आंखें अपनी फ़िरदौस के मेले में,क्योंकि क़ातिब जैसा कोई फरिश्ता ना होगा।।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
खलिश-पीड़ा ।।गुज़ीदा= चुना हुआ।जलाल= विशाल।।ज़मीर= मन, हृदय, विचार।।ज़ामिन= विश्वास दिलाने वाला, जमानतदार।।ज़ियारत= तीर्थयात्रा, धर्मस्थल पर जाना।। ज़र्ब= घाव।।ज़लाल= गलती।।नाफ़हम= मूर्ख।। नाफ़र्मान= आज्ञा न मानने वाला।।नब्ज़= नाड़ी की गति, नाड़ी की धड़कन।। गुलज़ार= उपवन, फूलों की क्यारी।।गम़्माज़= भेदिया, चुगलीबाज।।फ़िरदौस= स्वर्ग, उपवन।।क़ातिब - लेखक।।
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