Rajnish baba mehta Poet Director |
वो ईश्क मोम सा था, जो धीरे-धीरे पिघलता चला गया
वो अश्क आह सी थी, जो आंखों में धीरे-धीरे सुलगता चला गया
हर लम्हा आहट सी बनकर, फासलों से यूं ही गुजर गया
वो मेरी गली से आखिरी बार जो गुजरी, मैं झरोखों पर मचलता रह गया ।।
वक्त की रेत जिस डिब्बी में बंदकर, मेरे सामने यूं हीं छोड़ गई
उस रेत को पाने की तमन्ना में, मै हर रोज यूं हीं बिखरता चला गया ।।
सरे-राह मिली तो नजरें झुका, हाथ पैबंद कर परायों में बेखबर चली गई
मेरे ईश्क्यारी की छांव तले, वो गुनाहगार भी हर पल संवरता चला गया ।।
वो संवर गई महबूबा-ए-चांद, और मैं बिखर के कभी सिमट ना सका
बंद कमरे में जो अश्क मोतियों से बहे, उससे ना तो तू, ना मैं कभी पिघल सका
तालों की तहरीर पर कोई तवारीख लिखकर, फिर कभी मिटा ना सका
जो आया था उम्र के समंदर को पारकर तेरे दरवाजे पर आखिरी बार
जिस्म की ख्वाहिश पूरी की, लेकिन मौत को मिटा ना पाया इस बार ।।
इल्जाम-ए-इश्क की कहानी, खुद के कलम की रवानी लिखूंगा
दौर-ए-जुनूं के इम्तिहान में, दो जिस्मों की खून से, पानी लिखूंगा
शौक को दरख्त में दबाकर, तेरी ज़ुबानी खुद की जवानी लिखूंगा
ना मिले तुम ,ना मिले हम, तो फिर अपनी वारदात पुरानी लिखूंगा
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
।।ईश्क्यारी-प्रेमिका ।।
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