Rajnish Baba Mehta writer Director Poet |
सर्दी की एक बात सुनाऊं
थोड़ी अजीब लगेगी
लेकिन सुनाता हूं
नहीं तो मेरे जिस्म में पेवस्त
कुछ ज़ेहन में भी शब्द शोर मचाते हैं।
लेकिन सुनाता हूं
नहीं तो मेरे जिस्म में पेवस्त
कुछ ज़ेहन में भी शब्द शोर मचाते हैं।
लगी थी आग दोनों तरफ
बीच में बैठी थी पसीने में लथपथ
साड़ी घुटने तक समेटे हुए
हाथ तेज़ी से रफ़्तार पर थी
मैं कोने में दुबका ताके जा रहा था।
बीच में बैठी थी पसीने में लथपथ
साड़ी घुटने तक समेटे हुए
हाथ तेज़ी से रफ़्तार पर थी
मैं कोने में दुबका ताके जा रहा था।
दोनों तरफ जल रही थी चूल्हें
रोटियां जमकर बेले जा रही थी
एक पर तवा तो दूसरे पर तशला
हाथों में मानों बिजली सा करंट था उसके
भोली-भाली देहाती सर्दी में भी पसीने से तर-बतर
रोटियां जमकर बेले जा रही थी
एक पर तवा तो दूसरे पर तशला
हाथों में मानों बिजली सा करंट था उसके
भोली-भाली देहाती सर्दी में भी पसीने से तर-बतर
सामने चूल्हे से आग की लपटें उठ रही थी
गर्मी भी तेज लग रही थी ,मज़ा भी ख़ूब आ रहा था।
धुआं उसे लग रहा था , लेकिन जलन मेरी आंखों में हो रहा था।
गर्मी भी तेज लग रही थी ,मज़ा भी ख़ूब आ रहा था।
धुआं उसे लग रहा था , लेकिन जलन मेरी आंखों में हो रहा था।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
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