Tuesday, May 30, 2017

बाज़ार-ए-ईश्क

RAJNISH BABA MEHTA WRITER DIRECTOR POET



सितारे समझ नहीं आया, कि सांसो के सहारे 
सपने उलझ नहीं पाया, कि दुनिया गम के किनारे 
रात चादर लिए अंधेरे में,अकेले, जुगनुओं के सहारे।।
लो नंगी कदमों की आहट लिए चल पड़ी वो शायरा 
थी चादर में वो लिपटी, सामने था कौन बनकर वो बेचारे ।।

अगर भोर हुई होती वक्त की, कर लेता उसकी परवाह, छोड़ अपने रक्त की ,
लिपट जाता सांसों में उसकी, मिटा देता सिंदूर सी स्याही, उसके मस्तक की।। 
सौदा इस बार महफिलों की थी, जो तू चिलचिलाती धूप की तरह नाची 
गुजर रहा था जो पास ही वो शाम थी,नजरें मिली ,ना इंतजार किया दस्तक की।।

तेरी गली में लगेगी इश्क औऱ बेवफाई की जो इस बार बाज़ार 
खुश्क गले को साथ आउंगा, रात टहनियों तले उस भीड में गुजारूंगा 
हर हाथ उठेंगे, हर आंखों में पलेंगे,बस दरवाजों के बाहर होगा एक ही इंतजार 
हरे लिबास में निकलेगी गलियों तले, लोग बस यही पूछेंगे, कहां बनेगी तेरी मज़ार।। 

इबादत होगी हर रोज ,ढलती शाम--उम्र के आगे, जहां होगी तेरी मज़ार 
फिर ईश्क की बात तो होगी, लेकिन लगेगी नहीं तेरी बेवफाई की बाज़ार ।।

कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 


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