Monday, April 3, 2017

।।जोगी बन रूह बना।।

Rajnish BaBa Mehta Writer

थिरकते होठों और कांपते शब्दों की जुंबिश में, जान होगा किसी का
रेतीली गरम हवाओं और तपते तलवों के बीच, पहचान होगा किसी का !
रात ऐसी रोती होगी, खुली खिड़कियों के बाहर, बेज़ुबान होगा किसी का
दस्तक दी थी बार बार, यही सोच दरवाजा ना खोला, मेहमान होगा किसी का !

जोगी बन लूटने चला था भरी दोपहरी में, खुली आंखें शाम होने को आया
संगमरमरी जिस्म ओढ़े लेटी रही चारपाई पर, बिना खोले पूरी ख़त पढ़ आया !
दस्तक की आहट से चौंक उठे दरवाजे, कहने लगी, आधी नींद में था शरमाया
छोड़ा आधी बातों को बीच रातों में, अफसोस तेरा भ्रम हकीकत में पूरा ना कर पाया !
मेरी तिश्नगी तसव्वुर से निकलकर तेरी तस्वीर की दास्तां बन गई
नातर्स थी तू खिड़कियों पर खड़ी, सामने वो नादीदा निहारती रोती चली गई
नब़्ज नाबूद हो गया , फिर भी सिराहने तले से वो ताकती चली गई
हर सोच को जो सहेज कर रखा, आखिरी लम्हों में वो पेवस्त होती चली गई।।
अब राख सा ज़िस्म रूह बनकर ,चांद तले रात-रात रोया जो करेगा
सामने हकीकत देख, बस अब फ़सानों की बात कर वो अफसोस जताया करेगा।।
ढ़ूढना कभी जो चांदनी रात आएगी, मिलूंगा सामने ,फिर भी तू जी भरकर रोया करेगी
मिलके भी ना मिल पाएंगे, सामने अक्श तो होगा, लेकिन अफ़सोस भी तू खूब जताया करेगी।।
कातिब 
रजनीश बाबा मेहता 
।।तिश्नगी - प्यास ।।तसव्वुर-कल्पना।।नातर्स-कठोर हृदय ।।नादीदा -लालची ।।नाब़ूद -लुप्त ।।

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