दु:ख गया दिल , उबल पड़े चंद शेर
आंसूओं में बह गया, वो सिसकियों का ढ़ेर ।।
डूबने नहीं, उगने वाला था सुबह का वो सिकंदर
साहिल पे था, मौत के चेहरों का वो हुजूम-ए-मंजर ।।
ना मिली पल की मोहलत, जो आंख भरकर देख पाता
छुपते-छुपाते सन्नाटें में जो शोर मचाती आई ।।
नींद की आगोश में, करवटों के किनारे, सपनों के सहारे
शब-ए-मर्ग बाद, पौ तो फटी मगर जिंदगी ना नजर आई ।।
रक्खा था ज़मीनों पर कई कशीदा-सर
चाहकर भी देख ना पाया वो हुजूम-ए-मंजर।।
रूह-रूह में जो इस तरह वो पेवस्त हुई
राख सा जिस्म थर्राया नहीं ध्वस्त हुई ।।
तोड़कर आईना-ए-ज़िदंगी जो तू मौत कर गया
रेल की सीटी सी गुनगुनाकर जो तू हममें घर कर गया
तलाश लेना तू वो बिस्तर जिसपर तेरी नींद मुकम्मल हो
क्योंकि तेरी सिसकियां हमें पूरा पत्थर कर गया ।।
कातिब
रजनीश बाबा मेहता
शब-ए-मर्ग -रात का आखिरी पहर, कशीदा-सर -खुला सर
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