Writer, Director Rajnish BaBa Mehta |
बंद आंखों वाली अकेली अल्हड़ इश्क़ है जो कभी ख़फ़ा ना होगी
खुली आंखों से जो देखूंगा ख़्वाहिश को वो कभी बेवफा ना होगी ।।
शाख-ए-गुल को जला दी उसने, जो हर हर्फ़ तले कभी दफा ना होगी
शहरे-ए-राख से आबाद हुआ जिस्म, कि कोई कब्र अब ख़फ़ा ना होगी।।
स्याह धुंधली धुंध के तले ख्वाहिशों के मोड़ पर अब उमर-उमर की ही बात है
लाल जिस्मों तले तुझे देखकर ऐसा लगा मानो बचपन से फिर मुलाकात है ।।
रब का वास्ता है तुझे छोड़ आना फिर मुझे उसी अधजली गलियों के मुहाने तले ,
जब आखिरी रात बीतेगी तब एहसास होगा उस रोज भी कि मौत की ही तो बात है ।।
फकीरों सा नाउम्मीदी का दिल लिए अब एहसास वाला सफ़र नाकाम ही तो है
सदियों से लंबी मगर सोई है शाम वाली हसरतों के तले वो बेज़ुबान शाम ही तो है।।
इक फुर्सत-ए-गुनाह के पैमाने पर चलते-चलते थक सा गया वो पांव वाली पयाम ही तो है
देखा है झरोखों से मर्सिया गाते उसे, पहचानने की फिराक़ में उमर गुजर गई मगर वो राम ही तो है ।।
सोच आउंगा तेरी समंदर सी सिराहनों को जो तू अब कभी ख़फ़ा ना होगी
राह-ए-मंजिल के दरम्यां समेट लूंगा तूझे आगोश में जो तू अब कभी बेवफा ना होगी।।
जलाउंगा तेरी ज़िद में जिस्म को, जो तू अब कभी खुद की मौत के बाद भी दफा ना होगी
मेरा शहर रूह-ए-राख तो होगा, लेकिन नफ़्स(आत्मा) की आंसू तले तू अब कभी ख़फा ना होगी ।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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