दर्द की स्याही से
ख्वाबों के खत में
ख्यालों को क्या खूब
लिखा था ।।
सोच को सपनों की तरह
सहेज कर रखा
लेकिन साज़िश के साथ
किसी ने सुना ही नहीं।।
बदलते वक्त की बयार
ने मौका ही नहीं दिया
वरना वो भी बेरहम, बेअसर
ही साबित होता ।।
लफ्जों में बदलते
आंसू , आंसूओँ में थोड़ा सा काजल
मानों रातों ने भी
रो रोकर, खुद को गीला कर लिया ।।
अब तो आक़िल भी अपने
अक्ल पर रो रहा है
क्या करें अब तो
कातिब(लेखक) भी अपने कलम पर रो रहा है।।
कातिब(लेखक)
रजनीश 'बाबा' मेहता
15 जून 2013
No comments:
Post a Comment