Wednesday, October 12, 2011

मंडी हाउस का हीरो



एक राह का ऱाहगीर तू
एक ख्वाब का ख्वाबगीर  तू ।
चलता जा सपनों की राहों पर
सन्नाटा लिए मंडी की गलियों में
भटकता है सदियों तक तू ।
ख्वाहिशों का सेहरा सर बांधे
जख्म छुए पैरों को...
धूप जलाए चेहरों को
फिर भी ना दर्द पहुंचे
ना चोट खाए..
ना दाग दिया सीने पर तू ।
अब चलना छांव छांव
कतरा कतरा आंसू लिए तू।
अजीब दर्द की दांस्ता यहां
कहीं मिलेगी छांव ...
तो कही धूप पाएगा तू ।
नाटक की कायनात में ...
आशिकों की तरह भटकता तू...
धुएं में उलझी धूल की तरह
उड़ना चाहता  तू ।
वक्त से टपका जो लम्हा... उसकी तरह
मंडी की गलियों में खुद की निशां तलाशता  तू ।
आई मंजिल पाने की बारी
आई  जीने की बारी
जी लेने दो मुझको .....
खो जाने दो मुझको ।
अब आई मेरी बारी ।


रजनीश "बाबा मेहता"

No comments: