आज मेरी ज़ुबान को आवाज़ नहीं
आज मेरे हाथों में मेरे अल्फ़ाज़ नहीं
फ़िक्र के समंदर में डुब कर आया
जिस्म को तेरी आवाज़ की अब ज़रूरत नहीं।
जो खोया वो मेरा कभी था ही नहीं
जो पाउंगा वो तेरा कभी होगा ही नहीं
सोच औऱ सपनों से संसार जो बुनूंगा
सासों की सिलवटों से जो कहानी लिखूंगा
वो नायाब हीरा तो होगा लेकिन तेरे जैसा पत्थर नहीं ।।
उठाके बंसी चाँद तले, छेड़ूंगा तान लेकिन रोउंगा नहीं
बुझा के दीया बिस्तरों के किनारे बैठा हूं, लेकिन सोउंगा नहीं
परख ज़ौहरी सी बना ली मैंनें, फिर भी ठगना फ़ितरत नहीं
हवाओं ने फ़िज़ाओं के साथ रूख़ बदला, लेकिन हारना अपनी आदत नहीं।।
तो फिर चल, उठा सारंगी बन फ़क़ीर साज की परवाह नहीं
बन मालिक अपनी मर्ज़ी का , क्योंकि तेरे सामने ज़माने का ज़िक्र नहीं ।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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