Writer & Director Rajnish BaBa Mehta |
लफ्जों की तलाश थी, लेकिन हर्फ़ ढ़ूंढ़ लाए हैं,
काली लकीरों की चाह में, अधूरी जिंदगी पीछे छोड़ आए हैं।
ज़ेहन अफ़सुर्दा लेकिन अकबरी अफ़साने किस डगर ले जाए मालूम नहीं
मगर जो संकरे रास्ते घर तक जाती थी, उन पर पैरों के निशान कबके मिटा आए हैं।
उस दूर दुनिया की चाह में , यादों की आलिम उमर को भऱे बाज़ार बेच आए हैं,
चेहरे पर परदे बदलते-बदलते, खुद की पहचान अपनों से ही जुदा कर आए हैं।।
फ़रिश्ताई फिराक की फ़िक्र में, उजालों औऱ अंधरों का फर्क ही भूल आए हैं,
रोज काली लकीरों से अफ़सानों की मद में, अनसुने कई अधूरे किस्से कब्र में छोड़ आए हैं।।
उसी पुरानी सड़क पर खड़ा हूं फिर से, जो जानी-पहचानी अनजान सी लगती है आज
भटकती भीड़ से परे रास्तों की तलाश में, अपनों के शहर में अजनबियों जैसे आ खड़े हुए ।।
कहानियों की ख़्वाहिश वाली बोझ तले, अंधेरी कासनी रातों वाली ख्वाबों की आवाज दबा आए
ज़मीर की ज़द में खुद से खुद की लड़ाई के दरम्यां, मालूम चला अपना असल अस्तित्व ही पीछे छोड़ आए।
अपनी हौसलों वाली दुनिया बसाने के चक्कर में, उस कमजोर चाहत से सरेआम सौदा कर आए,
बंद करता हूं आंखें दिखती है धुंधली रोशनी में ,जो अपनी पुरानी घर की दहलीजों को सूना छोड़ आए हैं।
बेबसी का सौदा सौदा करते , एक रोज घर जलाने वाले चरागों से बिना शर्त ही समझौता कर आए हैं
उमर की दस्तक तले पहली बार पता चला, बुढ़ापे की दहलीज पर खड़े-खड़े सारी जवानी यूं ही गंवा आए हैं।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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