Poet, Writer & Director Rajnish BaBa mehta |
दो लफ्जों वाली सुनी-अनसुनी बात है,
शायद आज खुद से आखिरी मुलाकात है।।
रोती राहों में ढ़ूंढ़ती तमन्नाओं की अकेली आस है,
ना जाने क्यों जिंदगी लगती बाजी की आखिरी बिसात है।।
सोच के परों पर साहिल समंदर तले सिसकती सांस सी है
जो उठी है लहर रेत तले वो लौ जैसी भभकती फांस सी है ।।
बोझिल कदमें ,बोझिल लम्हें झुलसती हवाओँ में कहती काश सी है,
ये आऱाईश वक्त की जो ठहरा है रक्त में वो कैसी आजमाईश सी है ।
गलियों से गुजरती शाम वाली भोर तले, शक क्यों है खुद की साख पर
बहार-ए-हिज़्र में तौला है खुद को, फिर भी ना जाने क्यों खड़ा हूं राख पर।।
दिल दिलासाओँ के भंवर में तैर रही, फिर भी तमन्नाओँ वाली बात क्यों खाक पर।
ना कोई दवा है ना कोई मशवरा-ए-दुआ है, फिर क्यों खामोश हूं खुद की फिराक़ पर ।।
सफ़र की सोच तले अब सजा रहा हूं खुशी चेहरे पर
जो काफ़िया ग़म का कभी गोशे में उभरने ना दिया ।।
गुज़रे ज़माने की बात कर, हर लम्हों को यूं ही खराब ना कर
क्योंकि ख्वाहिश वाली मसर्रत जिंदगी को उस पल जो संवरने ना दिया ।।
ख्वाबों वाली अब भोर भी होगी, ख्वाहिशों वाली अब शोर भी होगी ,
अंधेरी कासनी रातों तले जो गिरे आंसू, वो भोर में उम्मीदों वाली सैलाब होगी।
सफर सोच की हर पल ज़िंदा जैसी होगी , गरीबी में भी अब गुरबत वाली बातें ना होगी।
मकाम जब जश्न की होगा, तो रोशनी तेरे घर भी होगी , रोशनी मेरे घर भी होगी।।
कातिब & कहानीबाज
रजनीश बाबा मेहता
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